योगराज सिंह
इतना लंबा सफर और अनुभव के आधार पर दावे के साथ बोल सकता हूं कि इस हेडिंग पर कोई विश्वास नहीं करेगा। यह वैसा ही है, जैसे कि आज के समय में कोई यह कहने लगे कि मैं कुएं से पानी भरकर पीता हूं। अब देश के अंदर कुएं की संख्या बहुत ही कम है।
ठीक इसी तरह गांव में जो जीवन बीता, वह जीवन अविश्वासों और अंधविश्वासों के आसपास ही घूमता रहा। स्कूल जाते समय जेब में प्याज रखना या पीली पड़ती दूब घास को नोंचकर जेब में रखना। स्कूल जाते-आते समय रास्ते में बरम बाबा, काली माता आदि के ठिकानों पर मत्था टेकते हुए ही आना-जाना होता था। अपना गांव ही नहीं गांव के आसपास चार-छह और गांवों को अच्छे से समझने लगा था। इसका एक प्रमुख कारण था कि हमारे पिताजी के पास तमाम लोग मदद के तौर पर अनाज लेने के लिए आते थे। पिताजी जी में एक खास आदत थी कि वे किसी को अपने दरवाजे से खाली हाथ वापस नहीं भेजते थे, उनके पास जो कुछ संभव होता था, वह देकर ही भेजते थे। अब इस बात पर आज के समय में विश्वास करना मुश्किल होगा।
ठीक वैसे, जैसे आज के समय में सरकार द्वारा दिए जा रहे पांच किलो राशन पर लोगों का जीवन व्यतीत कैसे हो जाएगा? राशन की बात करेंगे तो बड़े खेतिहर से लेकर छोटे किसान, गरीब से लेकर अमीर तक, नौकरी पेशा हो या रिटायरमेंट, लगभग ऐसा कोई नहीं है जो राशन न लेता हो। इस पर लोगों को आश्चर्य तो होगा ही और विश्वास होगा कि नहीं यह कहा नहीं जा सकता।
इसी प्रकार गांव या गांव के आसपास जो देखा और समझा, वही बताने का प्रयास कर रहा हूं। अंधविश्वास इतना जबरदस्त है, जो अभी भी कम नहीं हुआ है, उसके तरीके में बदलाव जरूर हो गया है। दरअसल गांवों में सबके अपने कुल देवता होते ही हैं, उनमें से कुछ कुल देवता बलि भी लेते हैं, ऐसे देवी और देवता भी हैं। काली माता के पुजारी या गाजी मियां आदि को अपना देवता मानने वाले बकरे, मुर्गा या छौना की बलि देते थे। यह अंधविश्वास तो है ही, अविश्वसनीय भी है। दरअसल जो लोग संपन्न हैं, वे अगर ऐसा कोई काम करते हैं तो ठीक भी समझ में आता है, लेकिन जिन लोगों के पास दो वक्त की रोटी बड़ी मुश्किल से जुटती है, इस प्रकार के लोग ऐसे कर्मठ करने के लिए अपना खेत गिरवी रख देते हैं जबकि कई बेच भी देते हैं। यहां अंधविश्वास तो है ही, अविश्वसनीय भी है। गांव या गांव के आसपास कुछ परिवारों को तो मैंने देखा है, जिन घरों में कई मौतें पर्याप्त भोजन न मिलने के कारण हो चुकी हैं। लेकिन यही वो परिवार हैं, जो पूजा-पाठ बड़े ही धूमधाम से करते थे और कर रहे हैं। इनके यहां अनुष्ठानों में बकरे की बलि भी दी जाती थी, और उस बकरे के मीट को परिवार और गांव के लोगों को खिलाया जाता था। मान्यता यह होती थी कि बकरा खिलाने वाले अमुक परिवार की दरिद्रता दूर होगी। यहां गौर करने वाली बात है कि भले ही बकरे की बलि देने वाला परिवार खेत को गिरवी रखकर या खेत ही बेचकर अपने कुल देवता को मना रहा हो। कुल देवता उन पर प्रसन्न हुए कि नहीं यह ईश्वर के अलावा किसी दूसरे को समझ में आना बहुत ही कठिन है।
यहां एक बात बहुत जरूरी है, जो अवश्य ही लिखना चाहिए। दरअसल आज के समय में करोड़ों का लोन लेकर जो लोग फरार हो चुके हैं, कईयों के माफ भी कर दिए गए हैं। लेकिन यही स्थिति 90 के दशक में हुआ करती थी, गांवों में भैंस पालने के लिए और ट्यूबवेल चलाने के लिए इंजन खरीदने के नाम पर थोड़ा कर्ज ले लेते थे और समय पर न चुका पाने के कारण पकड़कर लॉकअप में बंद कर दिए जाते थे। यह अविश्वसनीय ही माना जाएगा, चूंकि आज के समय में कोई इस बात पर शायद ही विश्वास करें। पांच-छह या दस हजार लोन लेने वाले इधर-उधर भागते फिरते रहते थे, जब लोन वसूली वाले आते थे तो कर्जा लेने वाले लोग नदी या जंगल की ओर भाग जाया करते थे।
आजकल फेंकने वाले यानी बढ़-चढ़कर बतियाने वाले कुछ ज्यादा ही चर्चा में बने रहते हैं। आपके आसपास तमाम ऐसे लोग मिल जाएंगे, जो बातें तो ऐसी करेंगे कि आपको विश्वास हो सकता है, लेकिन ऐसे लोग अविश्वसनीय ही होते हैं।
शहरों का आज का जीवन, उसे भी समझ पाना एकदम कठिन सा है। पड़ोस की 12वीं पास महिला यदि नौकरी पर जा रही है और वह अपनी महिला दोस्तों से यह कहती है कि मुझे 50-60 हजार मिलते हैं। इस पर यकीन किया जा सकता है, लेकिन यहां अविश्वसनीय इसलिए लगता है कि ऐसे लोग हर छोटी-मोटी खरीददारी लोन लेकर ही करते हैं। कइयों को तो आप देखेंगे कि लोन न दे पाने की वजह से उनके यहां रिकवरी वाले भी आ जाते हैं, तब जाकर यह जानकारी होती है कि यह परिवार तो लोन ही नहीं चुका पा रहा हैं। अब यहां भी यही भाव है कि अगर लोगों की बातों पर यकीन कर लो तो अविश्वसनीय तो है ही, उसे अंधविश्वास ही तो कहा जाएगा।