‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ से एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी: ‘विमेन हू डेयर्ड’ (Women Who Dared)। ऋतु मेनन द्वारा संपादित यह पुस्तक अंग्रेजी में है और इसमें इक्कीस ऐसी प्रतिनिधि महिलाओं के आत्मकथ्य संकलित हैं, जिन्होंने, संपादिका के अनुसार, पिछले पचास वर्षों के दौरान समाज एवं संस्कृति के अलग-अलग क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य किए हैं। लेकिन मोहन गुप्तनेयहाँ अपने विमर्ष को उसी एक लेख तक सीमित रखा है, जो हिंदी–प्रकाशन से संबंधित है और शीला संधू ने लिखा है। आदि से अंत तक स्वयं को महिमा–मंडित करने की धुन में उन्होंने पूरे लेख को झूठ का पुलिंदा बना दिया‚ जिसकातार–तार विश्लेषण किया है मोहन गुप्त ने ।
शीला संधू हिंदी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित संस्थान ‘राजकमल प्रकाशन’ की लगभग उनतीस वर्षों तक प्रबंध-निदेशक रहीं और मैंने उनके साथ पहले प्रकाशन-अधिकारी, फिर प्रकाशन-निदेशक और अंततः संयुक्त प्रबंध-निदेशक की हैसियत से कुल मिलाकर चौबीस वर्ष तीन महीने काम किया। इस अवधि में मैं ‘राजकमल’ में होनेवाली तमाम गतिविधियों एवं महत्वपूर्ण फ़ैसलों का निकटतम साक्षी व सहभागी रहा। इससे सहज ही समझा जा सकता है कि मेरा शीला संधू के लेख पर बात करना जायज़ व तर्कसंगत है।
शीला संधू का लेख किताब के चैबीस पृष्ठों में है, जिनमें से पहले बारह पृष्ठों में उन्होंने अपने बचपन, अपने परिवार, अपनी शिक्षा-दीक्षा, अपने विवाह तथा कम्युनिस्ट पार्टी आफ़ इंडिया में अपने संघर्षों की कथा कही है और बाक़ी बारह पृष्ठों में ‘राजकमल प्रकाशन’ में अपने कार्यकाल की। उल्लेखनीय है कि पुस्तक में संकलित अन्य बीस महिलाओं में से किसी का भी आत्मकथ्य इतना लंबा नहीं है: शीला संधू के चबीस पृष्ठों की तुलना में हर आलेख सात-आठ पृष्ठों से लेकर बारह-तेरह पृष्ठों तक में निबट जाता है। यह एक ऐसा तथ्य है. जिसकी चर्चा यहाँ गै़रज़रूरी लग सकती है, लेकिन वह ग़ैरज़रूरी है नहीं। दरअसल शीला संधू के कथ्य पर जो बात मैं करनेवाला हूँ,उसकी यह पृष्ठभूमि है। मेरा कहने का मतलब है कि उन्होंने तिल को ताड़ बनाने की कोशिश की है और ऐसी कोशिश में न सिर्फ़ लफ़्फ़ा़जी करनी पड़ती है बल्कि बात को घुमाना-फिराना भी पड़ता है। इस बात का प्रमाण शीला संधू का यह कथन है: “We produced books that were far from electronic. They remained books and were not stored in disks but in reams of paper along miles of shelves in rented godowns. This required six-monthly stocktakings, preparing kucchi lists and regular pest control to prevent mice from eating the las in the spine. This may now sound quaint and comic, but when this complicated operation was underway. Mishraji would emerge from the godowns, sneezing and coughing, covered in dust like a hapless victim of an earthquake.”
उपर्युक्त अनुच्छेद में एक तो यह ग़लतबयानी है कि स्टॉक-टेकिंग छमाही की जाती थी। यह कसरत साल-भर में सिर्फ एक बार, 31 मार्च के बाद अप्रैल माह में की जाती थी। दूसरी बात यह कि जब वे अपने समय में किताबों के स्टोर करने की पद्धति बताती हैं, तो ऐसा लगता है कि आज वह पद्धति बदल गई है। लेकिन हमारे देश का पूरा प्रकाशन व्यवसाय तो आज भी उस पुरानी पद्धति का ही अनुसरण कर रहा है। फिर इसमें नया क्या है जो वे लच्छेदार भाषा में हमें बताना चाहती हैं। और, तमदजमक हवकवूदे का उल्लेख (इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि गोदाम ज़रख़रीद है या किराए का) तथा छींकते-खाँसते हुए, गोदाम से बाहर निकलते मिश्राजी की भूकंप के शिकार व्यक्ति से तुलना उनकी काव्यात्मक प्रतिभा के प्रदर्शन के अलावा कोई ठोस बात कहती दिखाई नही देती। इस संदर्भ में कोई ताज्जुब नहीं कि उनके लेख की लंबाई ज़्यादा हो गई है। मेरा यह तर्क इस बात से भी पुष्ट होता है कि उन्होंने लेख में जिस कठिन तथा मुहावरेदार शब्दावली का इस्तेमाल किया है, वह न तो भारत की पहली महिला आईएएस पद्मा रामचंद्रन ने किया और न ही अंतरराष्ट्रीय ख्याति की इतिहासकार व इतिहासलेखन में एक शैलीकार के रूप में प्रतिष्ठित प्रोफेसर रोमिला थापर ने। ऐसा करके शायद वे तिल का ताड़ बनाने की अपनी हरक़त को परदे की ओट देना चाहती हैं, क्योंकि, मेरे ख़याल से ऐसी भाषा का इस्तेमाल आदमी तभी करता है, जब उसके पास कहने लायक़ बहुत ठोस कुछ नहीं होता और वह दिखाना चाहता है जैसे उसने कोई बहुत निराली व बड़ी बात कह दी है। ऊपर उद्धृत अनुच्छेद इस बात का प्रमाण है।
शीला संधू ने अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में चाहे जो अतिशयोक्ति की हो, उससे हमें कुछ लेना-देना नहीं है, क्योंकि उसका कोई सार्वजनिक महत्व नहीं है। लेकिन एक संस्था का रूप ले चुके ‘राजकमल’ के साथ क्योंकि सामाजिक सरोकार जुड़े हुए हैं, अतः उसके इतिहास को विकृत करके सामने रखना पूरे हिंदी-जगत के प्रति अन्याय है।
‘राजकमल’ के बारे में जो कुछ यहाँ कहा गया है, वह ‘राजकमल’ की गतिविधियों से सामान्य परिचय रखनेवाले पाठक को न केवल ठीक लगेगा बल्कि उसे शायद यह भी महसूस होगा कि ‘राजकमल’ का गरिमामय रूप अपनी समग्रता में पहली बार इस लेख में ही उद्घाटित हुआ है। लेकिन यह ऐसा सच है, जो झूठ के सुनहरे पर्दे के पीछे छुपा हुआ है। ‘राजकमल’ का गरिमामय रूप एक सच्चाई है, लेकिन उस रूप को बनानेवाली श्रीमती संधू हैं, यह झूठ है– श्रीमती संधू का मोहक भ्रमजाल, जो लेख के प्रारंभ में पुस्तक की संपादक ऋतु मेनन द्वारा दिए गए उनके परिचय से ही शुरू हो जाता है। इस परिचय में ऋतु मेनन ‘राजकमल’ को अरुणा आसफ अली द्वारा संस्थापित बताती हैं जबकि यह बात असलियत से कोसों दूर है। इसकी सफ़ाई में शीला संधू का कहना था कि ऋतु मेनन का यह वाक्य उनकी जानकारी में तब आया जब किताब रिलीज़ हो चुकी थी, लेकिन उनके इस तर्क में उस समय कोई दम नहीं रह जाता, जब हम यह देखते हैं कि ‘राजकमल’ के सत्ता-परिवर्तन के दौर में वे स्वयं अरुणा आसफ़ अली का उल्लेख इस प्रकार करती हैं, जैसे उन्होंने ही ‘राजकमल’ की स्थापना की हो और वे ही ‘राजकमल’ का संचालन कर रही हों। इस संदर्भ में उनका यह वाक्य ग़ौरतलब है: “One day he (Hardev Sandhu, her husband) returned after meeting ArunaAsaf Ali with the news that she was having trouble in her publishing house and that he had promised help.” (एक दिन वे {उनके पति हरदेव संधू} अरुणा आसफ़ अली से मिलकर इस ख़बर के साथ लौटे कि उनके प्रकाशन संस्थान में कुछ मुश्किलें आ रही हैं और मैंने उनकी मदद करने का वादा कर लिया है।)’’ इससे ज़ाहिर है कि ऋतु मेनन यदि ‘राजकमल’ को अरुणा आसफ़ अली द्वारा संस्थापित बताती हैं, तो यह शीला संधू के लेख का ही एक निष्कर्ष है।
शीला संधू को यह मोहक भ्रमजाल क्यों बुनना पड़ा, इस बात को समझने के लिए हमें ‘राजकमल प्रकाशन’ में उनके अंतिम समय पर एक नज़र डालनी होगी। उन्होंने अपने लेख में स्वीकार किया है कि उनकी तीन संतानों में से किसी की भी रुचि ‘राजकमल प्रकाशन’ में नहीं थी। उनके इस कथन का निष्कर्ष यही हो सकता है कि इन परिस्थितियों में उन्हें विवशतापूर्वक ‘राजकमल’ को बेचने का निर्णय लेना पड़ा। हालाँकि इस दिशामें उनके छिटपुट प्रयास बहुत पहले शुरू हो गए थे, लेकिन 1990 से उन प्रयासों में तेज़ी आई और अगले दो-तीन वर्षों में कई लोगों के साथ निर्णायक बिंदु तक पहुँचकर भी सौदा टूट गया, क्योंकि वे, जिसके साथ भी बात चलती उसे, यह जताने की कोशिश करतीं कि उनकी अनुपस्थिति में किसी के लिए भी ‘राजकमल’ को चलाना मुश्किल होगा, इसलिए वे ‘राजकमल’ को बेचकर भी उसके निदेशक-मंडल की अध्यक्ष के रूप में ‘राजकमल’ से जुड़ी रहेंगी, उसकी संपादकीय नीतियों का संचालन उनके हाथ में रहेगा और संबंधित व्यक्ति इस बात को उजागर नहीं करेगा कि उसने ‘राजकमल’ ख़रीद लिया है। इन शर्तों के पीछे उनका मनोविज्ञान क्या था? इसका दो शब्दों में जवाब है: अतिशय महत्वाकांक्षा से उत्पन्न दंभ। लगभग ढाई दशक तक वे लेखक-बिरादरी के बीच घोषणा करती रही थीं कि अपने जीते-जी राजकमल को बेचेंगी नहीं, उन्हें पैसे का कोई मोह नहीं है; इसलिए अगर किसी स्तर पर उन्होंने महसूस किया कि स्वास्थ्य अथवा अन्य किसी कारण से वे राजकमल को नहीं चला पा रही हैं तो उसे ‘उपयुक्त’ हाथों में सौंपकर उसके रोज़मर्रा के क्रियाकलाप से विराम ले लेंगी। लेकिन ये बातें वैसी ही थीं जैसे हाथी के दिखावे के दाँत होते हैं, क्योंकि उपर्युक्त दौर में कम-से-कम तीन वाक़ई उपयुक्त व्यक्ति उन्हें मिले, जिनके साथ बात या तो उनकी बेसिर-पैरवाली शर्तोंके कारण या फिर इसलिए नहीं बनी कि वे उनकी मुँहमाँगी राशि देने को तैयार नहीं थे। अंततः जून-जुलाई 1994 में या शायद उससे कुछ और पहले एक व्यक्ति उन्हें मिल गया, जो उनके ख़याल से ‘उपयुक्त’ था और अपने तौर पर होशियार भी। उसने उनकी मुँहमाँगी रक़म देने के साथ-साथ उपर्युक्त शर्तें भी फ़ौरी तौर पर स्वीकार करके अपनी ‘उपयुक्तता’ का परिचय दिया और इस तरह 4 अक्टूबर 1994 को गुपचुप तरीक़े से सत्ता-परिवर्तन हो गया। लेकिन झूठ के पाँव नहीं होते। बात छुपी नहीं, तो शीला संधू ने पत्रकारों व टी.वी. चैनल्स के एंकरों को बुला-बुलाकर बयान ज़ारी किए कि मैंने ‘राजकमल’ बेचा नहीं बल्कि उसकी बिक्री-व्यवस्था सुधारने के लिए एक प्रकाशन-गृह से गठजोड़ किया है। ‘इंडिया टुडे’ (हिंदी) सहित कई पत्र-पत्रिकाओं में उनके बयान छपे और कम-से-कम दो टी.वी. चैनल्स की मुझे याद है, जिन पर उन्होंने इस आशय के बयान ज़ारी करनेवाले साक्षात्कार दिए। आख़िर क्यों? क्यों उन्हें इस झूठ का सहारा लेना पड़ा? जवाब साफ़ है: लेखक-बिरादरी के बीच की गई उनकी घोषणाएँ ग़लत साबित हों, यह उनके अहं को गवारा नहीं था। ‘राजकमल’ की अध्यक्षा के रूप में जो नशा उन पर सवार हुआ, वह उन्हें चैन से नहीं बैठने दे रहा था।
लेकिन बहुत चतुराईपूर्वक फैलाए गए भ्रमजाल को चूहों ने जल्दी ही कुतर डाला और एक वर्ष बीतते-न-बीतते उन्हें राजकमल से ‘ससम्मान’ विदा लेनी पड़ी, जिसके लिए वे लिखती हैं: “When I retired…”ग़ौरतलब है कि उनके लेख में ‘राजकमल’ ख़रीदने का उल्लेख तो तामझाम के साथ है, किंतु बेचने के बारे में एक शब्द भी पूरे लेख में नहीं है। मज़े की बात यह कि इस वास्तविकता का उन्होंने न सिर्फ़ उल्लेख नहीं किया बल्कि बहुत चतुराई के साथ इसे छुपाया भी। मीडिया को दिए गए साक्षात्कार उनकी इसी कोशिश का नतीजा थे। ‘विमेन हू डेयर्ड’ के लिए आत्मकथात्मक लेख लिखने का मौक़ा मिला, तो इसके माध्यम से एक बार फिर उन्होंने भ्रम पैदा करने की कोशिश की। इसीलिए बेचने की बात न लिखकर लिखा: श्ॅीमद प् तमजपतमकण्ण्ण्श् गोया वे ‘राजकमल’ का भार अपनी संतति को सौंपकर कार्यमुक्त हो गई हों।लेख लिखते समय शीला संधू शायद भूल गई थीं कि ग़लत मंशासे सत्य को छुपाना या तोड़-मरोड़कर पेश करना झूठ बोलने से भी ज़्यादा बुरी बात है।
सत्य को तोड़-मरोड़कर पेश करने का उदाहरण शुरू में ही सामने आ जाता है जब वे लिखती हैं: % “The export company Hardev set up with other ex-comrades rose to be one of the largest trading houses and one day he returned after meeting ArunaAsaf Ali…”क्या इसका साफ़ मतलब यह नहीं है कि हरदेव संधू जब अरुणा आसफ़ अली से मिले, उस समय तक उनकी कंपनी को एक बड़े ट्रेडिंग हाउस का दर्ज़ा मिल चुका था? अगर इसका यही अर्थ है, तो ग़ौरतलब है कि हरदेव संधू ने ‘नवभारत एंटरप्राइज़ेज़’ के नाम से जो कंपनी एक्स-कामरेड्स के साथ मिलकर खड़ी की थी, उसे ट्रेडिंग हाउस का स्टेटस कभी नहीं मिला। सन 1974 के आसपास वह कंपनी बंद हो गई, तो हरदेव संधू ने ‘चिनार एक्सपोर्ट्स प्रा.लि.’ के नाम से अपनी निजी कंपनी खड़ी की, जिसे 1982 के उत्तरार्ध में ट्रेडिंग हाउस का दर्ज़ा मिला। अरुणा आसफ़ अली से मिलने के बाद ‘राजकमल’ का अधिग्रहण 1965 में हो चुका था और ‘नवभारत एंटरप्राइजे़ज़’ को नहीं बल्कि ‘चिनार एक्सपोर्ट्स’ को ट्रेडिंग हाउस का दर्ज़ा मिला 1982 में यानी शीला संधू ने कंपनी के नाम पर गोलमाल करने के अलावा समय को सिर्फ़ सत्रह साल पीछे खींचा है।
शीला संधू आगे बताती हैं कि जिस समय उन्होंने राजकमल का अधिग्रहण किया, उस समय तक न हिंदी साहित्य और प्रकाशन की दुनिया से उनका कोई परिचय था और न वे हिंदी पढ़ना-लिखना जानती थीं, लेकिन हिंदी का सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान हाथ में आने के बाद (हालाँकि उनके लेख में एक शब्द भी इस आशय का नहीं है, जिससे पता चले कि जो ‘राजकमल’ उन्होंने ख़रीदा था, वह हिंदी का सर्वश्रेश्ठ प्रकाशन संस्थान था) उन्होंने हिंदी भाषा का ज्ञान प्राप्त करना ज़रूरी समझा। निस्संदेह उनका सोचना बहुत सही था, लेकिन यहाँ फिर ग़लतबयानी। बात बहुत छोटी है, लेकिन ग़लतबयानी छोटी हो या बड़ी, वह ग़लतबयानी ही रहेगी। वे लिखती हैं: % “As I crossed 45, I began to familiarize myself with the Devnagari script…” शीला संधू का जन्म 1924 का है और ‘राजकमल’ का अधिग्रहण 1964 के अंत की घटना है, तभी उन्होंने हिंदी सीखनी शुरू की थी, अतः उन्हें लिखना चाहिए था: ।े प् बतवेेमक वितजल… पैंतालिस की देहली तो वे उस समय लाँघ रही थीं, जब अप्रैल 1970 में मैं राजकमल में आया और तब तक वे अच्छी-ख़ासी हिंदी पढ़ने लगी थीं, कुछ लिख भी लेती थीं। उम्र में पाँच वर्ष जोड़कर शायद वे यह रौब ग़ालिब करना चाहती हैं कि प्रौढ़ावस्था में भी एक नई भाषा सीखने का उत्साह उनमें था।
‘राजकमल’ का अपना प्रिंटिंग प्रेस था: नवीन प्रेस, जो उस समय दिल्ली के बड़े प्रेसों में से एक था। उस प्रेस में श्रमिक असंतोष1969 के उत्तरार्ध में शुरू हुआ था और उसका उग्र रूप 1970 की दूसरी तिमाही में सामने आया, जब ‘राजकमल’ के दफ़्तर व शीला संधू के घर के सामने ‘शीला संधू हाय-हाय’ के नारे लगे थे। किंतु शीला संधू ने इस घटना को भी कुछ साल पीछे खींचकर उस समय के साथ जोड़ दिया जब उन्होंने ‘राजकमल’ का अधिग्रहण किया था, सिर्फ़ यह दिखाने के लिए कि उन्हें एक समस्याग्रस्त संस्था विरासत में मिली थी। इस ग़लतबयानी के साथ वे यह बताना भूल गईं या फिर जानबूझकर नहीं बताया कि इस झगड़े का लाभ उठाकर उन्होंने ‘नवीन प्रेस’ बेच दिया और ‘राजकमल’ ख़रीदने में उनका जो पैसा लगा था, वह लगभग पूरा इस बिक्री से वसूल कर लिया।
जिन लेखकों से मिलने और उनके निकट संपर्क में आने को शीला संधू अपना सौभाग्य बताती हैं, उनकी नामावलीप्रस्तुत करने के उत्साह में वे निरालाजी को भी नहीं बख़्शतीं। उन्होंने ‘राजकमल’ का अधिग्रहण 1964 के अंत में किया और निरालाजी का देहांत अक्टूबर 1961 में हो चुका था। आखिर उन्हें ऐसी कौन-सी सिद्धि प्राप्त थी कि वे लगभग तीन साल पहले दिवंगत हुए व्यक्ति से भी मिल सकती थीं।
अपने लेख में शीला संधू लिखती हैं: “I assured them (the authors)…of my commitment to carry forward the tradition of Rajkamal imprint…” rFkk “I carried forward the established reputation of Rajkamal without falling prey… into the allegedly more edifying text book publishing…” बहुत अच्छी बात कही है परंपरा को आगे बढ़ाने और प्रतिष्ठा को क़ायम रखने की। लेकिन वह परंपरा व प्रतिष्ठा क्या थी, यह नहीं बताया, जिसके अभाव में उनका यह कथन आज के कांग्रेसियों का वक्तव्य लगता है, जो गाँधी के आदर्शों को समझे बिना बात-बात में गाँधी के आदर्शों की दुहाई देते हैं और घोषणा करते हैं कि वे गाँधी के रास्ते पर चल रहे हैं। रही बात पाठ्य-पुस्तकें प्रकाशित न करने की, तो उसके बारे में यही कहा जा सकता है कि शीला संधू ने स्वयं को महिमामंडित करने के लिए ही इस छद्म का सहारा लिया है। इसकी साक्षी हैं वे तमाम पाठ्य पुस्तकें, जो 1970 से 1975-76 के दौरान ‘राजकमल’ से प्रकाशित हुईं। कानपुर विश्वविद्यालय के लिए डॉ. ललित शुक्ल-संपादित काव्य-संकलन ‘आयाम’, आगरा विश्वविद्यालय के लिए डॉ. श्रीराम शर्मा-संपादित गद्य-संकलन ‘प्रकीर्णिका’,राजस्थान विश्वविद्यालय के लिए रघुवर दयाल-संपादित ‘गद्य विविधा’,दक्षिण भारत के एक विश्वविद्यालय के लिए ‘आठ कहानियाँ’शुद्ध पाठ्य पुस्तकें थीं, जो शीला संधू ने तैयार कराईं और प्रकाशित कीं। इसी दौर में बिहार के विष्वविद्यालयों के लिए वहाँ के स्थानीय लेखकों-प्रोफ़ेसरों की चार-पाँच पाठ्य पुस्तकें प्रकाशित की गईं। एक विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम के लिए खंडकाव्य की माँग हुई, तो बाबा नागार्जुन को ‘राजकमल’ के गेस्ट हाउस में ठहराकर उनसे ‘भस्मांकुर’ की रचना कराई गई। यह खंडकाव्य वर्षों तक एक नहीं, अनेक विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता रहा। सन् 1976 में ‘एन.सी.ई.आर.टी.’ के लिए अंग्रेज़ी में ैबपमदबम ंदक ैवबपमजल तथा हिंदी में ‘एकांकी संकलन’ नाम से दो पाठ्य पुस्तकें प्रकाशित की गईं। कुछ पाठ्य पुस्तकें ‘राजकमल’ में पहले से थीं। उदाहरण के लिए पंतजी की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन ‘रश्मिबंध’,डॉ. देवीशंकर अवस्थी-संपादित ‘कहानी विविधा’,डॉ.रघुवीर सिंह-संपादित ‘कहानी: नई-पुरानी’ और पं. नरेंद्र शर्मा का खंडकाव्य ‘द्रौपदी’। इन सभी पाठ्य-पुस्तकों की ज़बरदस्त विक्री होती रही है।
शीला संधू के ही कार्यकाल में शुद्ध पाठ्य पुस्तकों के अलावा अनेक साहित्यिक पुस्तकों के पाठ्य पुस्तकीय संस्करण भी प्रकाशित किए गए। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ जैसे कालजयी उपन्यास का आठ वर्ष तक ‘राजकमल’ से केवल पाठ्य-पुस्तकीय संस्करण ही प्रकाशित होता रहा! उसका सजिल्द संस्करण पहली बार 1978 में ‘हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली’ के प्रकाशन के बाद तैयार किया गया। छात्र-संस्करण के रूप में प्रकाशित होनेवाली अन्य साहित्यिक पुस्तकें हैं: ‘पुनर्नवा’, ‘भूले-बिसरे चित्र’, ‘सबहिं नचावत राम गोसाईं’, ‘सामर्थ्यऔर सीमा’, ‘मैला आँचल’। एक विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम के लिए ऐतिहासिक उपन्यास की माँग थी, तो भगवतीबाबू से विशेष आग्रह करके ‘युवराज चूण्डा’ लिखवाया गया था।
अपनी इस पृष्ठभूमि के साथ शीला संधू यह दावा कैसे करती हैं कि वे पाठ्य-पुस्तक-प्रकाशन के अधिक लाभकारी मायाजाल में नहीं फँसीं? अगर वे इस सच्चाई को स्वीकार करते हुए कहतीं कि पाठ्य पुस्तकों का प्रकाशन उन्होंने साहित्यिक पुस्तकों के प्रकाशन को आर्थिक आधार देने के लिए किया, तो बात समझ में आती और तब उसमें कुछ भी ग़लत न होता । पश्चिम के बड़े प्रकाशक भी ऐसा करते रहे हैं। लेकिन सच्चाई को स्वीकार करके वे स्वयं को महिमामंडित कैसे करतीं?
शीला संधू अपने घर में होनेवाले शुरुआती दौर के साहित्यिक जमावड़ों के संदर्भ में लिखती हैं: Punjabi, Urdu and Hindi (writers) began to rub shoulders with each other. In the beginning they sat together formally, ill at ease like distant cousins who have reason to mistrust other. Then they began to speak, I daresay to even converse, if not enjoy the company and work of each other.”यहाँ कुछ व्यक्तियों के (उनके नाम शीला संधू ने नहीं बताए जबकि अन्य प्रसंगों में नामावलियों की भरमार है) आपसी अपरिचय को उन्होंने भाषाओं का अपरिचय बता दिया और यह जताने की कोशिश की है कि इन तीनों भाषाओं को एक-दूसरे के निकट लाने का पुनीत कार्य उनके घर में होनेवाली बैठकों में ही संपन्न हुआ। लेकिन वे भूल गईं (या शायद उस इतिहास को वे जानती ही नहीं हैं) कि प्रगतिशील लेखक संघ, ऑल इंडिया रेडियो, हिंदी-फ़िल्मों के प्रारंभिक दौर तथा श्रीपतराय के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका ‘कहानी’ के माध्यम से यह कार्य बहुत पहले संपन्न हो चुका था। बलवंत सिंह ने भी हिंदी में ‘उपन्यास’ नामक पत्रिका निकालकर इस दिशा में महत्वपूर्ण पहल की थी। जिस समय की बात शीला संधू कर रही हैं, उससे कई दशक पहले ये तीनों भाषाएँ एक-दूसरी के बहुत क़रीब आ चुकी थीं। इस क्षेत्र में प्रेमचंद, उपेंद्रनाथ अश्क़व देवेंद्र सत्यार्थी सरीखे लेखकों के अवदान को भुलाया नहीं जा सकता।
शीला संधू आगे लिखती हैं: “Rajkamal was the first to publish annotated editions of Urdu poets from India and Faiz from our own Lahore in both the Devnagari and Urdu scripts-beautiful, strikingly different, sitting face to face and bound together as they should be.”मैं जानना चाहूँगा,– और मैं क्या, कोई भी पाठक जानना चाहेगा,– कि फ़ैज़ साहब के ‘मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर’ को छोड़कर, जिसका प्रकाशन 1978 के आसपास हुआ, उर्दू शायरी का कौन-सा द्विभाषी-संग्रह ‘राजकमल’ से प्रकाशित हुआ? और फिर, हिंदी में यह पहला द्विभाषी-संग्रह नहीं था। दूर न जाएँ तो शीला संधू के पारिवारिक मित्र अली सरदार जाफ़री ही बहुत पहले ‘हिंदुस्तानी बुक ट्रस्ट’ से ‘दीवान-ए-ग़ालिब’, ‘दीवान-ए-मीर’ तथा ‘मीरा की प्रेम-वाणी’के भव्य द्विभाषी संकलन प्रकाशित कर चुके थे। नाम और भी गिनवाए जा सकते हैं, लेकिन शीला संधू का पहल का दावा तो इसी से ग़लत साबित हो जाता है।
जहाँ तक उर्दू शायरी के annotated संस्करण प्रकाशित करने की बात है, शीला ला संधू के कथन से लगता है कि एक बड़ी संख्या में ऐसी किताबें प्रकाशित हुई होंगी। लेकिन द्विभाषी-संस्करण की तरह यहाँ भी ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’ की कहावत चरितार्थ होती है। ‘राजकमल’ में आने के बाद शीला संधू ने उर्दू षायरी के सिर्फ़ दो संग्रह प्रकाशित किए थे: फ़ैज़ साहब का ‘शीशोंका मसीहा’ और अली सरदार जाफ़री का ‘प्यास की आग’। और, इनका प्रकाशन भी इसलिए नहीं हुआ था कि शीला संधू किसी योजना के तहत उर्दू शायरी को हिंदी में लाना चाहती थीं बल्कि इसलिए हुआ था कि ये दोनों शायर संधू-दंपती के पारिवारिक मित्र थे। अगर उर्दू शायरी को हिंदी में लाना शीला संधू का मक़सद होता, तो निश्चित रूप से अन्य शायरों के संग्रह भी ‘राजकमल’ से प्रकाशित होते; लेकिन ऐसा नहीं हुआ और जो हुआ वह यह कि उस समय तक उर्दू-शायरी में एक मुक़ाम हासिल कर चुके शायर शीन-काफ़ निज़ाम द्वारा संपादित दस समकालीन शायरों की एक बहुत ख़ूबसूरत पुस्तकमाला का प्रस्ताव उन्होंने ठुकरा दिया। अलबत्ता जाँ निसार अख़्तर के संपादन में ‘हिंदोस्ताँ हमारा’ के दो खंड 1972 में प्रकाशित किए गए थे, जिनके लिए भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय से बड़ी आर्थिक सहायता मिर्ली थी। वह सहायता न मिलती, तो शीला संधू ‘हिंदोस्ताँ हमारा’ के दो वृहत् खंड प्रकाशित करने का साहस न जुटा पातीं।
संख्या की बात छोड़ भी दें तो यह लिखते समय कि उर्दू शायरी के annotated संस्करण ‘राजकमल’ ने ही पहली बार प्रकाशित किए, शीला संधू को जान लेना चाहिए था कि अयोध्याप्रसाद गोयलीय के संपादन में ‘शायरी के नए दौर’ तथा ‘शायरी के नए मोड़’ आदि पुस्तकमालाओं के अंतर्गत उर्दू-शायरी के तीन-तीन/चार-चार सौ पृष्ठों के आठ-दसवृहत् annotatedसंकलन पचास के दशक में ही ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ से प्रकाशित हो चुके थे, जिनकी रूपसज्जा और पाठ की प्रामाणिकता बेजोड़ थी।
ऊपर हम कह चुके हैं कि ‘राजकमल’ की गौरवशाली परंपरा को आगे बढ़ाने की बात करते हुए शीला संधू यह नहीं बतातीं कि वह गौरवशाली परंपरा क्या थी। उसे समझे बिना यह नहीं जाना जा सकता कि उन्हें विरासत में कितनी बेशक़ीमती चीज़ मिली थी और उसे किस बेदर्दी के साथ उन्होंने तहस-नहस कर दिया। शायद यही कारण है कि उनका पूरा लेख विरासत में मिले ‘राजकमल’ के स्वरूप का परिचय न देकर यह जताने की कोशिश का नतीजा है कि ‘राजकमल’ में जो कुछ भी अच्छा था या है, वह सब उनका योगदान है। उदाहरण के लिए उनका यह वाक्य: “We were on a winning streak of ideas…a very heady time, indeed. NaiKahaniyan had always belonged to Rajkamal. Many authors famous today published their first stories in this magazine.” इस उद्धरण के पहले वाक्य के तुरंत बाद जब ‘नई कहानियाँ’ का प्रसंग आता है, तो उसका साफ़ मतलब यह निकलता है कि ‘नई कहानियाँ’ का प्रकाशन शीला संधू ने शुरू किया, जबकि वास्तविकता यह है कि ‘नई कहानियाँ’ के संस्थापक ‘राजकमल’ के पूर्व-संचालक ओंप्रकाश थे… had always belonged to लिख देने मात्र से भ्रम की संभावना समाप्त नहीं हो जाती।
एक स्थान पर शीला संधू ‘राजकमल’ के वास्तविक निर्माता स्व. ओंप्रकाश की प्रशंसा करने की उदारता भी दिखाती हैं। लिखती हैं:Om Prakash, farsighted, creative and unafraid of adventure, set up many series and gave the Rajkamal imprint the character of uncompromising quality that is associated with it even today, despite the cormers that are now cut.” यहाँ वे एक तीर से दो शिकार करती हैं। पहला यह कि ओंप्रकाश की प्रशंसा करके अपनी उदारता का परिचय दे देती हैं और दूसरा यह कि उन्होंने तो ओंप्रकाश की परंपराओं को सुरक्षित रखा तथा आगे बढ़ाया, किंतु उनके ‘राजकमल’ से निकलने के बाद उसके वर्तमान स्वामियों ने उस परंपरा को एक हद तक नष्ट किया।
लेकिन वास्तविकता क्या है, आइए देखें।
ओंप्रकाश ने ‘राजकमल’ में जिन महत्वपूर्ण कामों की शुरुआत की थी, शीला संधू ने एक-एक कर उनमें से कई को बंद कर दिया। ओंप्रकाश वास्तव में कल्पनाशील, प्रबुद्ध और जोखिम उठाने से न डरनेवाले प्रकाशक थे और अगर यह कहा जाए कि आज़ादी के बाद के हिंदी-प्रकाशन के इतिहास में उनके जोड़ का दूसरा प्रकाशक आज तक पैदा नहीं हुआ, तो इसमें कोई अत्युक्ति नहीं होगी। उन्होंने हिंदी-प्रकाशन को आधुनिक संस्कार दिया, उसके रिक्त कोनों को भरा। उनकी दृष्टिकेवल सर्जनात्मक साहित्य तक सीमित नहीं थी बल्कि उन्होंने हिंदी में पारिभाषिक कोशों की ज़रूरत महसूस करते हुए ‘मानविकी पारिभाषिक कोश’ नाम से एक शृंखला पर काम शुरू कराया, जिसके अंतर्गत साहित्य, मनोविज्ञान एवं दर्शनशास्त्र के तीन कोश प्रकाशित किए। जब उन्हें ‘राजकमल’ छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा, उस समय ‘राजनीति कोश’ तथा ‘अर्थशास्त्र कोष’ की पांडुलिपियाँ तैयारी में थीं। कहने की आवश्यकता नहीं कि उनके कार्यकाल में प्रकाशित उपर्युक्त तीनों कोश गुणवत्ता की दृष्टिसे आज भी अतुलनीय हैं, किंतु शीला संधू ने उन कोशों को अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया और बाद में जब ‘अर्थषास्त्र कोष’ तथा ‘राजनीति कोश’की पांडुलिपियाँ तैयार होकर मिलीं, तो उन्हें प्रकाशित करके भी कुछ सालों में ही यह कहकर रद्दी में बिकवा दिया कि उनकी बिक्री संतोषजनक नहीं हो रही है, जबकि अनेक सामान्य कोटि की किताबें दस-दस, पंद्रह-पंद्रह सालों से गोदाम की षोभा बढ़ा रही थीं व सिसक-सिसककर बिक रही थीं और फिर भी उन्हें रद्दी में नहीं बेचा गया।
यह थी ओंप्रकाश द्वारा स्थापित एक परंपरा की पहली हत्या।
इस कोटि का दूसरा उदाहरण है ‘सर्वेक्षणमाला’ और ‘मूल्यांकनमाला’ की पुस्तकें। ओंप्रकाश ने विश्वविद्यालय-स्तरीय छात्रों की आवश्यकता को ध्यान में रखकर इन पुस्तकमालाओं का प्रकाशन आरंभ किया था, जिनका उद्देश्य छात्रों को किसी एक साहित्यिक प्रवृत्ति अथवा कृति अथवा कृतिकार के विषय में स्तरीय सामग्री एक स्थान पर सुलभ कराना था, ताकि वे घटिया किस्म की कुंजियाँ व गाइडें पढ़ने से बच सकें। पश्चिम में ऐसी पुस्तकमालाओं की परंपरा बहुत पहले से है। ‘फेबर एंड फेबर’ जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशक ने भी इस तरह की पुस्तकमालाएँ प्रकाशित की हैं। किंतु शीला संधू की दृष्टि में शायद इनका कोई महत्व नहीं था। लिहाज़ा ये पुस्तकमालाएँ भी उनकी उपेक्षा का शिकार बनीं और धीरे-धीरे समाप्त हो गईं।
दूसरी परंपरा की हत्या।
तीसरा उदाहरण है समाजविज्ञान की किताबों का। ओंप्रकाश ने इतिहास, दर्शनशास्त्रएवं समाजशास्त्र के मानक ग्रंथों का प्रकाशन शुरू किया था, किंतु शीला संधू के कार्यकाल में उनमें नई पुस्तकें जुड़ना तो दूर, पहले से प्रकाशित पुस्तकों की निरंतरता भी क़ायम नहीं रह सकी। एक-एक करके पुस्तकें आउट-ऑफ़-प्रिंट होती गईं और उन्हें पुनर्मुद्रित नहीं किया गया। बहुत दिनों की जद्दोजहद के बाद मैंने गुन्नार मिर्डल की तीन किताबों: ‘एशियन ड्रामा’, ‘चैलेंज ऑफ वर्ल्ड पावर्टी’ तथा‘अगेंस्ट दॅ स्ट्रीम’का अनुबंध कराया था। दरअसल गुन्नार मिर्डल को उसके एक साल पहले ही ‘एशियन ड्रामा’ के लिए नोबेल पुरस्कार मिला था और प्रोफ़ेसर पी.सी. जोशी ने भी गुन्नार मिर्डल के नाम पर अनुशंसा की मोहर लगाई, तो शीला संधू ने तीनों पुस्तकों के प्रकाशन की स्वीकृति दे दी। मैं बहुत ख़ुश था कि ‘राजकमल’ में समाजविज्ञान के प्रकाशन की पुनः शुरुआत हो रही है, तो देर-सबेर पहले की आउट-ऑफ़-प्रिंट किताबें भी पुनर्मुद्रित होंगी और यह परंपरा आगे बढ़ेगी।
गुन्नार मिर्डल की उपर्युक्त पुस्तकों में से बाद की दो पुस्तकों के अनुवाद क्रमशः‘विश्व निर्धनता की चुनौती’ एवं ‘धारा के विरुद्ध’शीर्षकों से प्रकाशित हुए, किंतु जब ये दोनों पुस्तकें प्रेस में थीं, उसी समय शीला संधू के चहेते विक्रय-निदेशक ने घोषणा कर दी थी कि ‘यह पत्थर का अचार’ आ रहा है, बिकेगा नहीं।’ यह बात स्वयं शीला संधू ने भी मेरे प्रसंग में इसी लेख में कही है। लिखती हैं: “… he (Mohan Gupta) was forever locked in battle with dragons from the sales department who habitually greeted every editorial initiative with declarations that it was utterly unsaleable. nothing but PatharKaAchaar— pickled stone in bottles.”फलतः दोनों पुस्तकें प्रकाशित होकर भी तीन साल बीतते-न-बीतते रद्दी में दी गईं।
शीला संधू ने ‘राजकमल’ का अधिग्रहण करने के तुरंत बाद की विषम परिस्थितियों का उल्लेख करते हुए अपनी प्रशासनिक क्षमताओं का गर्वपूर्ण उल्लेख किया है: “I…started with what I was good at—administration.”क्या यही उनकी प्रशासनिक क्षमता थी कि वे एक कल्पनाहीन व जोडू-तोडू विक्रय-व्यवस्थापक के हाथों की कठपुतली बनी हुई थीं! सच तो यह है कि तमाम अच्छी योजनाओं की हत्या कराने में विक्रयविभाग पेश-पेशथा और शीला संधू हमेशा उसके सामने असहाय बनी रहीं।
समाजविज्ञान की पुस्तकों के संदर्भ में शीला संधू एक स्थान पर लिखती हैं: %“We never really managed to sustain a substantial list of titles in the social sciences, but here too we aimed for the best…” यह उस समय का प्रसंग है जब उनके चहेते विक्रय-निदेशक ‘राजकमल’ से विदा हो चुके थे और अचानक यह तथ्य उभरकर सामने आया था कि आई.ए.एस. की परीक्षाओं में हिंदी माध्यम स्वीकृत हो जाने से इन पुस्तकों की माँग बहुत बढ़ गई है। इसके बावजूद शीला संधू में जोख़िम उठाने का माद्दा न होने के कारण सुमित सरकार की पुस्तक ‘मॉडर्न इंडिया’ का अनुवाद साल-भर से अधिक समय तक अल्मारी में बंद रहा था। उसके प्रकाशन के नाम पर वे हमेशायही कहती रहीं कि इतनी बड़ी पुस्तक प्रकाशित करने के लिए पैसा कहाँ से आएगा। अंततः बहुत मुश्किल से उन्होंने एक हजार प्रतियाँ प्रकाशित करने की अनुमति दी थी। लेकिन मैं जानता था कि पुस्तक बिकेगी, लिहाज़ा मैंने चुपचाप तीन हजार प्रतियाँ छपवा लीं और आश्चर्यजनक रूप से ढाई महीने के अंदर पुस्तक आउट-ऑफ़-प्रिंट हो गई। इस चमत्कार से शीला संधू का उत्साह बढ़ा और मुद्दत से आउट-ऑफ़-प्रिंट पड़ी तीन-चार पुरानी किताबों को दो-तीन नई किताबों के साथ नए रूपरंग में पेश करके ढोल पीटा गया कि ‘राजकमल’ जोरशोर के साथ समाजविज्ञान के प्रकाशन में आ रहा है। लेकिन आगे इस दिशा में कोई ख़ास काम नहीं हुआ।
यही अंतर था शीला संधू व ओंप्रकाश के व्यक्तित्व में। शीला संधू के स्थान पर ओंप्रकाश होते, तो समाजविज्ञान के प्रकाशन को न जाने और कितनी ऊँचाइयों तक ले जाते।
ओंप्रकाश की कल्पनाशीलता का एक और उदाहरण था बाल-विश्वकोश, जिसका प्रकाशन उन्होंने ‘जानने की बातें’शीर्षक से किया था। दस खंडों में आयोजित इस कोश के लेखक थे सुप्रसिद्ध वामपंथी विचारक एवं विद्वान प्रो. देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय। ओंप्रकाश के ‘राजकमल’ छोड़ने तक इसके सात खंड प्रकाशित हो चुके थे और शेष तीन खंडों की पांडुलिपियाँ राजकमल में मौजूद थीं। किंतु शीला संधू के काल में उन तीन अप्रकाशित खंडों का प्रकाशन तो हुआ ही नहीं, जो खंड प्रकाशित हो चुके थे, वे भी कुछ वर्ष बाद काल के गाल में समा गए।
पूरी तरह भारतीय परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर तैयार की गई उस पुस्तकमाला में समय-परसंशोधन-परिवर्धनकीगुंजाइशहोसकतीथी, ऐसे विषयों में संशोधन एवं परिवर्धन होता ही है, किंतु उनकी महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता था। पर इस योजना का भी वही हश्र हुआ, जो उपर्युक्त अन्य योजनाओं का हुआ था।
इसी से जुड़ी कहानी है बाल साहित्य की। ‘कमल किताबें’ के नाम से ओंप्रकाश ने बच्चों के लिए अत्यंत आकर्षक पुस्तकें प्रकाशित की थीं। हर पृष्ठ पर बहुरंगी चित्र और चित्र के नीचे मोटे अक्षरों में छपे हुए सरल-सुबोध छोटे-छोटे चंद वाक्य। इनका चित्रांकन देश के ख्यातिलब्ध चित्रकारों से कराया गया था और इन्हें भारत की अनेक भाषाओं में प्रकाशित करने की योजना थी। सभी भाषाओं के लिए चित्र एक साथ छापे गए थे; पाठ्य भाग अलग-अलग भाषाओं में अनूदित होकर छपना था।
ऐसी कल्पना आज चालीस साल बाद भी हिंदी-प्रकाशकों के पास नहीं है। अलबत्ता ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ व ‘चिल्ड्ंस बुक ट्रस्ट’ ने बहुत बाद में ऐसे प्रयोग किए, किंतु उस समय के लिए तो यह कल्पना अद्भुत ही थी। इस पुस्तकमाला की आठ-दस किताबों के हिंदी संस्करण ओंप्रकाश के समय में प्रकाशित हो गए थे, किंतु अन्य भाषाओं के लिए छपे हुए चित्रों के पृष्ठ ‘राजकमल’ के गोदाम की शोभा बढ़ाते रहे, जिन्हें मेरे ‘राजकमल’ में आने के बाद रद्दी में बेचा गया।
स्तरीय साहित्य को बहुत कम मूल्य पर सुलभ कराने के लिए ‘राजकमल पॉकेट बुक्स’ की शुरुआत भी ओंप्रकाश ने की थी। उस समय रेणु के ‘मैला आँचल’ और कामू के ‘प्लेग’ जैसे उपन्यासों के असंक्षिस संस्करण पाठकों को दो-दो रुपए में सुलभ हुए थे। लेकिन यह ‘राजकमल’ में ओंप्रकाश के आख़िरी वर्षों की बात है और शायद कुछ कारणों से उनके ‘राजकमल’ में रहते ही पॉकेट बुक्स की यह योजना स्थगित हो गई थी। शीला संधू ने इसमें दिलचस्पी ली होती, तो इस परियोजना को जीवनदान मिल सकता था।
ओंप्रकाश की कल्पनाशीलता का एक और उदाहरण उनके द्वारा प्रकाशित पत्रिकाएँ थीं। सन् 1952 के आसपास उन्होंने एक हाउस-जर्नल ‘प्रकाशन समाचार’ और एक आलोचना को समर्पित पत्रिका ‘आलोचना त्रैमासिक’ का प्रकाशन शुरू किया था।
‘प्रकाशन समाचार’ सरीखा हाउस-जर्नल उस समय हिंदी में अकल्पनीय था। आज कई प्रकाशक हाउस-जर्नल निकाल रहे हैं, मगर वे अपने जर्नल में अपने ही प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तकों की सूचना देते हैं: पूरे हिंदी-जगत में कहाँ क्या प्रकाशित हुआ है या होनेवाला है, यह सूचना आज के इन जर्नलों से नहीं मिलती। किंतु ‘प्रकाशन समाचार’ में न केवल प्रकाशन से संबंधित विषयों परशोधपूर्ण लेख छपते थे, बल्कि ‘इस मास के प्रकाशन’ तथा ‘आगामी मास के प्रकाशन’ शीर्षकस्तंभों के अंतर्गत हर महीने प्रायः सभी छोटे-बड़े प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की विवरणी भी छपती थी। साथ ही हर अंक में आठ-दस बाहरी प्रकाशनों की परिचयात्मक समीक्षा प्रकाशित की जाती थी। फलतः हिंदी में प्रकाशित किसी भी पुस्तक की जानकारी उस जर्नल के माध्यम से सुलभ होती थी। शीला संधू ने कुछ वर्षों तक इस परंपरा का निर्वाह किया और अंततः बाहर के प्रकाशनों की सूचना देनी बंद कर दी। उनका तर्क था कि हम दूसरों की पुस्तकों का मुफ्त में प्रचार क्यों करें और इस प्रकार ‘प्रकाशन समाचार’ के ‘राजकमल’ की पुस्तकों तक सीमित रह जाने से इसका मौलिक स्वरूप समास हो गया। अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि इस पत्र के रूप में ओंप्रकाश द्वारा स्थापित एक और परंपरा का अंत हो गया।
‘आलोचना’ त्रैमासिक का प्रकाशन सुप्रसिद्ध आलोचक शिवदान सिंह चैहान के संपादन में शुरू हुआ था। बाद में आचार्य नंददुलारे वाजपेयी सरीखे विद्वान व आलोचक तथा धर्मवीर भारती सरीखे कृती साहित्यकार इसके संपादन से जुड़े और सारा हिंदी-जगत जानता है कि हिंदी-आलोचना को दिषा देने में इस पत्रिका की युगांतरकारी भूमिका रही है। शीला संधू ने भी इस पत्रिका को डा. नामवर सिंह के संपादन में लगभग पच्चीस वर्षों तक चलाया और इसके लिए शीला संधू की प्रशंसा की जानी चाहिए, लेकिन यहाँ फिर गोलमोल बात करके वे किए-कराए पर पानी फेर देती हैं। लिखती हैं: … Alochana was published intermittently for nearly 40 years, no mean achievement.” lokygSfdachievement किसका? ओंप्रकाश का, जो इसके प्रवर्तक थे? या शीला संधू का? उन्हें स्पष्ट करना चाहिए था। और फिर, नामवर सिंह ने किन विषम परिस्थितियों में रहकर इसका संपादन किया, इसे वे ही बेहतर जानते हैं। एक संपादक के लिए जो सुविधाएँ अपेक्षित होती हैं, वे शायद उन्हें कभी नहीं मिलीं और इसीलिए शीला संधू के कार्यकाल में इसका प्रकाशन कभी समय से व नियमित नहीं हो पाया। आख़िर इस पत्रिका का समाधिलेख भी शीला संधू के हाथों ही लिखा गया।
‘नई कहानियाँ’ मासिक-पत्रिका का प्रकाशन भैरवप्रसाद गप्त के संपादन में शुरू किया गया था। बाद में कमलेश्वर इसके संपादक बने। इस पत्रिका ने हिंदी-कहानी के विकास में ऐतिहासिक योगदान दिया था। शीला संधू के ‘राजकमल’ में प्रवेश के साथ कमलेश्वर ने ‘नई कहानियाँ’ से अपना नाता तोड़ लिया, तो भीष्मसाहनी को इसका संपादक बनाया गया, लेकिन शीला संधू इसे ज़्यादा समय तक नहीं चला सकीं और कुछ वर्ष बाद ही यह पत्रिका बंद कर दी। फिर भी शीला संधू गर्व के साथ कहती हैं: “NaiKahaniyan had always belonged to Rajkamal…” जैसे कि यह उन्हीं की मानसपुत्री थी।
‘नई कहानियाँ’ के संदर्भ को आगे बढ़ाते हुए शीला संधू ने जो लिखा है, वह उनके घोर अज्ञान का परिचायक है। लिखती हैं% “It is important to remember that I speak of a time that predates the magazine revolution of the seventies, when little else existed in Hindi except Dharmayug, Saptahik Hindustan, Hans, Dinman and perhaps Grihalakshmi!”जिस समय की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करकेवे हमें बताती हैं कि उस समय उनके द्वारा गिनाई गई चंद पत्रिकाओं के अलावा कोई ख़ास पत्रिका नहीं निकलती थी, दरअसल वही समय हिंदी-पत्रिकाओं का स्वर्णकाल था। क्या वे ‘ज्ञानोदय’, ‘कल्पना’, ‘माध्यम’, ‘निकश’, ‘नई धारा’, ‘अवंतिका’, ‘अजंता’, ‘नया समाज’, ‘कृति’ आदि को महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ नहीं मानतीं? उनकी जानकारी के लिए कहना चाहता हूँ कि ये सभी पत्रिकाएँ अत्यंत महत्वपूर्ण थीं और ‘नई कहानियाँ’ के प्रकाशन से पहले ही प्रकाशित हो रही थीं। इस बुद्धिमान प्रकाशिका को यह भी मालूम नहीं कि ‘हंस’ उस समय प्रकाशित नहीं हो रहा था: प्रेमचंद-संपादित ‘हंस’ बंद हो चुका था और राजेंद्र यादव-संपादित ‘हंस’ शुरू नहीं हुआ था। ‘गृहलक्ष्मी’ भी उस समय प्रकाशित नहीं हो रही थी। यूँ भी ‘गृहलक्ष्मी’ को महत्वपूर्ण हिंदी-पत्रिकाओं की सूची में षामिल करना समझदारी का एक और नमूना है।
हिंदी के बारे में अंग्रेज़ी में ऐसी बेसिर-पैर की बातें लिखी जा सकती हैं और अंग्रेज़ीवाले इन्हें सच मान सकते हैं, लेकिन शीला संधू ‘हिंदीवालों’ को बेवकूफ नहीं बना सकतीं।
जहाँ तक ‘राजकमल’ से प्रकाशित होनेवाले लेखकों का सवाल है, हिंदी का शायद ही कोई महत्वपूर्ण रचनाकार होगा, जिसे ओंप्रकाश ने प्रकाशित न किया हो। लंबी सूची गिनवाने का कोई लाभ नहीं है, सिर्फ़ दो नामों का उल्लेख करना चाहता हूँ, जिन्हें शीला संधू ‘अपना’ कहती रही हैं और वे हैं: भीष्मसाहनी तथा कृष्णा सोबती। इन दोनों रचनाकारों की पहली पुस्तकें ओंप्रकाश प्रकाशित कर चुके थे। यहाँ तक कि हजारीप्रसाद द्विवेदी का ‘चारुचंद्रलेख’ भी उनके समय में ही प्रकाशित हो चुका था।
यह थी ‘राजकमल’ की परंपरा, जिसे गोलमोल शब्दों में पेश करके उसका सारा श्रेय शीला संधू ने ख़ुद लेना चाहा है और अपने उत्तराधिकारी पर कटाक्ष करते हुए लिखा है: श्कमेचपजम जीम बवउमते जींज ंतम बनज दवूश्ए किंतु स्वयं शीला संधू ने ‘राजकमल’ के कितने कोने कुतरे, यह उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाएगा। फिर भी वे कहती हैं:श् प् दमअमत ेजतंलमक तिवउ जीम चंजी ेमज इल ीपउ ;पमण् व्उ च्तंांेीद्धण्श् क्या उनका यह कथन कांग्रेसियों के समान ही नहीं है, जो गाँधी के आदर्शों की हत्या करके भी गाँधी के रास्ते पर चलने का दावा करते नहीं अघाते!
लेकिन इससे भी बड़ा मज़ाक़ शीला संधू ने ‘आलोचना पुस्तक परिवार’ सरीखी सीधे पाठकों से संपर्क करनेवाली योजना को बंद करने का दोष नए मैनेजमेंट के मत्थे मढ़कर किया है। उन्होंने इसे “… One of the first casualties of the new management”बताया है, जबकि असलियत यह है कि इसे कई साल पहले, 1991 में, वे स्वयं ही बंद कर चुकी थीं। इस योजना ने ‘राजकमल’ को एक आर्थिक आधार दिया था, यह बात शीला संधू उन दिनों खुले दिल से स्वीकार किया करती थीं। लेकिन इस लेख में वे लिखती हैं,श्प्ज ूंे दमअमत उमंदज जव इम चतवपिजंइसमकृरनेज ंद नदूपमसकल ंदक उमेेल ेमतअपबम जींज त्ंरांउंस ूंे बवउउपजजमक जव चतवअपकमण्श् सेवा और प्रतिबद्धता की कितनी उदात्त भावना है! अगर इसी भावना से आप इस योजना का संचालन कर रही थीं, तो इसे बंद क्यों किया? बंद कर दिया था, तो उसकी ज़िम्मेदारी नए मैनेजमेंट के सिर क्यों मढ़ी? क्या आप भूल गई थीं कि नया मैनेजमेंट ‘आलोचना पुस्तक परिवार’ बंद होने के कई वर्ष बाद अस्तित्व में आया?
बुद्धिजीवियों के साथ वामपंथी दलों के रिश्तेका उल्लेख करते हुए शीला संधू लिखती हैं: “For sure, the left never understood the battle Arunaji wanted to wage on their behalf, or indeed the one I fought.”शीला संधू ने वामपक्ष से यह शिकायत तो की है कि वह उस लड़ाई को नहीं समझ सका, जो वस्तुतः उन्होंने वामपक्ष के लिए लड़ी थी, लेकिन वह लड़ाई क्या थी, इसका कोई उल्लेख नहीं है। पाठकों के लिएयहघोर उत्सुकता का विषय है कि आख़िर वह लड़ाई थी क्या! क्या वह ‘नवभारत एंटरप्राइज़ेज़’ जैसा व्यावसायिक संस्थान शुरू करने, फिर ‘चिनार एक्सपोर्ट’ और फिर ‘चिनार इंडिया’ जैसे बड़े एक्सपोर्ट हाउस खड़े करने व भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सीढ़ी चढ़कर मास्को की ऊँचाई तक पहुँचने और वहाँ अपने व्यावसायिक संस्थानों का दफ्तर खोलकर एक्सपोर्ट के भारी-भरकम आॅर्डर हासिल करने की लड़ाई थी? या चतुराई से ‘राजकमल प्रकाशन’ को हथियाने व उसके माध्यम से संपर्कों का विस्तार करके उनका अपने व्यावसायिक लाभ हेतु इस्तेमाल करने की लड़ाई थी?
शीला संधू के संघर्ष और वामपक्ष के लिए लड़ाई लड़नेवाले चरित्र की असलियत का तब पता चला, जब जुझारू श्रमिक नेता शंकरगुहा नियोगी की नृशंस हत्या के बाद उनके जीवन एवं कर्तृत्व पर संपादित पुस्तक ‘संघर्ष और निर्माण’ का प्रकाशन-प्रस्ताव उन्होंने यह कहकर ठुकरा दिया था कि ‘‘इसे करने से अपनी पार्टी में मेरी बदनामी होजाएगी।’’ जी हाँ, ठीक यही शब्द थे शीलासंधू के। लेकिन मैं चाहता था कि संघर्षके साथ निर्माण की अवधारणा को मूर्त रूप देनेवाले इस अद्भुत क्रांतिकारी की स्मृति को समर्पित यह ग्रंथ ‘राजकमल’ से ही प्रकाशित हो और इस मुद्दे पर हमारा टकराव यहाँ तक बढ़ा था कि मुझे ‘राजकमल’ की नौकरी से इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर होना पड़ा था। मेरी दोटूक शर्त थी: या तो ‘संघर्ष और निर्माण’ का प्रकाशन ‘राजकमल’ से होगा या मेरा इस्तीफ़ा मंज़ूर करना पड़ेगा। अंततः शीला संधू को मेरी पहलीशर्त मंज़ूर करनी पड़ी थी।
तो, यह लड़ाई लड़ी थी शीला संधू ने वामपंथी ‘दलों’ की ओर से!
लड़ाइयाँ तो उन्होंने सोवियत संघ द्वारा प्रायोजित ‘राजनीतिक साहित्य’ तथा पत्रिकाएँ प्रकाशित करके भी लड़ी थीं। ओंप्रकाश को वे पी.एल. 480 का पैसा इस्तेमाल करने के लिए दोषी ठहराती हैं और ख़ुद सोवियत संघ का पैसा इस्तेमाल करती हैं।
‘ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड’ के अंतर्गत पुस्तकों की थोक ख़रीद के लिए रिश्वत के प्रस्ताव पर शीला संधू ने अपनी ईमानदारी का बड़ी काव्यात्मक भाषा में विस्तृत वर्णन किया है, जिसकी कोई आवश्यकता या प्रासंगिकता उस लेख में नहीं थी। दूसरे अनेक मामलों में जो रास्ते ‘राजकमल’ द्वारा अपनाए गए, उन्हें देखते हुए शीला संधू का वह उल्लेख ‘लोमड़ी के खट्टे अंगूर’ प्रतीत होता है। उदाहरण तो अनेक दिए जा सकते हैं, लेकिन वैसा करना औचित्य की सीमा लाँघना होगा, इसलिए विस्तार में न जाकर मैं यहाँ एक ही सवाल करता हूँ कि मोहन गुप्त के पत्रकारिता-काल की छिटपुट चीज़ें संकलित करके ‘गेहूँ और गुलाब’ शीर्षक संकलन एक कल्पित लेखक ‘हीनू बावा’ के नाम से तथा डॉ.श्यामसिंह शशि के संपादन में सैनिकों द्वारा लिखी गई कविताओं का ‘युद्ध के स्वर: प्रेम की लय’शीर्षक संकलन आख़िर किस प्रयोजन की सिद्धि के लिए प्रकाशित किए गए थे?
शीला संधू के कार्यकाल की तीन उपलब्धियाँ हैं: ‘आलोचना पुस्तक परिवार’ का सूत्रपात व संचालन, ग्रंथावलियों का परिकल्पन-प्रकाशन और पेपरबैक्स का प्रकाशन, जिनके माध्यम से समकालीन साहित्य की उत्कृष्ट कृतियाँ असंक्षिप्त रूप में व अत्यंत कलात्मक साज-सज्जा के साथ सुलभ मूल्य पर पाठकों तक पहुँचाई गईं। लेकिन खेद का विषय है कि कई अत्यंत तुच्छ बातों को भी महिमामंडित करने की धुन में वे अपने कार्यकाल की उपलब्धियों को सही ढंग से रेखांकित नहीं करसकीं और उनका पूरा लेख महज़ लफ़्फ़ाज़ी एवं ग़लतबयानियों का पुलिंदा बनकर रह गया।
बहरहाल, उपलब्धियों पर जो बात शीला संधू नहीं कर पाईं, वह संक्षेप में अगर हम कर लें, तो अप्रासंगिक या अनुचित नहीं होगा। ‘आलोचना पुस्तक परिवार’ की चर्चा क्योंकि पीछे हो चुकी है, इसलिए यहाँ सिर्फ ग्रंथावलियों और पेपरबैक्स की बात।
हिंदी में ग्रंथावलियों का परिकल्पन-प्रकाशन ‘राजकमल’ का ऐतिहासिक योगदान है, जिसको सही परिप्रेक्ष्य में न रखकर शीला संधू लिखती हैं: “Pant Rachanavali was published first, for which I secured a prepublication order and advance—an unheard of event in those days.” यानी उनके लिए हिंदी में पहली बार एक महान कवि की ग्रंथावली सुनियोजित ढंग से प्रकाशित करना नहीं बल्कि उसके लिए सरकारी ख़रीद का प्रकाशन-पूर्व आदेश तथा अग्रिम राशि प्राप्त करना अश्रुतपूर्व (नदीमंतक व) घटना थी, जिस पर वे गर्व कर रही हैं। लेकिन यह गर्व की नहीं, शर्म की बात होनी चाहिए, क्योंकि सरकारी ख़रीदों में ऐसे ‘चमत्कार’ कई प्रकाशक पहले से करते रहे हैं। उनके इस कथन का एक निहितार्थ यह भी है कि प्रकाशन-पूर्व आदेश तथा अग्रिम अगर नहीं मिलता, तो ‘पंत ग्रंथावली’ का प्रकाशन नहीं होता; ‘पंत ग्रंथावली’ का प्रकाशन अगर नहीं होता, तो फिर शायद किसी भी ग्रंथावली काप्रकाशन संभव न होता। मैं यह बात आनुमानिक तौर पर नहीं कह रहा हूँ बल्कि वास्तविकता यही थी, जिसका मैं पग-पग पर साक्षी रहा हूँ और अपने इस कथन को आज भी प्रमाणित कर सकता हूँ।
ग्रंथावलियों के संदर्भ में जो बात उल्लेखनीय होनी चाहिए थी वह यह कि ‘निराला रचनावली’ तथा ‘बच्चन रचनावली’ के महँगे पुस्तकालय संस्करणों पर हमने व्यक्तिगत पाठकों को यथोचित छूट व किश्तोंमें मूल्य अदा करने की सुविधा दी, तो दोनों रचनावलियों में से प्रत्येक के लगभग सौ-सौ सैट बिके। ‘परसाई रचनावली’ की व्यक्तिगत ख़रीद इससे कई गुना ज़्यादा हुई, लेकिन सबसे बड़ा चमत्कार घटित हुआ ‘मुक्तिबोध रचनावली’ के पेपरबैक संस्करण के प्रकाशन के अवसर पर। इस रचनावली के लिए एक हज़ार से अधिक पाठकों ने छह ज़िल्दों में नियोजित पूरी रचनावली का मूल्य अग्रिम भेजकर अपने प्रकाशन-पूर्व आदेश पंजीकृत कराए थे, जो सचमुच हिंदी-प्रकाशन के इतिहास की अश्रतपूर्व घटना थी। इससे पता चलता है कि हिंदी में पाठकों की कमी का रोना फ़िज़ूल बात है। मूल बात है अच्छा साहित्य सुलभ मूल्य पर आसानी से उपलब्ध हो सकने की। ‘मुक्तिबोध रचनावली’ के अनुभव ने सिद्ध कर दिया कि पुस्तकों की व्यक्तिगत ख़रीद का कोई संकट हिंदी में नहीं है और जो लोग इस संकट का रोना रोते हैं वे वास्तव में अपनी कमज़ोरी का ही रोना रोते हैं।‘राजकमल’ में रहते यह तथा ऐसे ही और भी कई अनुभव मुझे हुए, जिन्हें प्रकाशकीय जीवन की उपलब्धि कहा जा सकता है। मसलन, सआदत हसन मंटो की पाँच खंडों में प्रकाशित रचनावली ‘दस्तावेज: मंटो’ का एक हज़ार प्रतियों का सजिल्द संस्करण केवल 70 दिनों में समाप्त हो गया था और इसमें एक भी सैट सरकारी ख़रीद नहीं गयाथा। लेकिन इन तमाम योजनाओं के प्रणयन एवं क्रियान्वयन में शीला संधू की हिस्सेदारी कभी नहीं रही, अतःवे उस आनंद का भी अनुभव नहीं कर सकीं, जिसकी बात मैंने ऊपर की है। फलतः कई नगण्य बातों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने में ही उन्होंने अपना महिमा-मंडन समझा।
पेपरबैक्स का प्रकाशन ‘राजकमल’ की एक युगांतरकारी पहल थी। हालाँकि ओंप्रकाश के समय में भी ‘राजकमल पॉकेट बुक्स’ का प्रकाशन हुआ था और उन पॉकेट बुक्स ने अपने समय के पॉकेट बुक प्रकाशन में नए प्रतिमान स्थापित किए थे, लेकिन 1983 में शुरू की गई पेपरबैक योजना का स्वरूप एकदम अलग था, जिसके द्वारा चित्रकला तथा साहित्य को एक-दूसरे के नज़दीक़ लाने की कोशिश की गई और देश के कई अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चित्रकारों ने इस कोशिश का स्वागत करते हुए इसकी प्रशंसा में कहा कि आप लोग बृहत्तर पाठक समुदाय से हमारा और हमारी कला का परिचय कराकर कला-जगत का बड़ा उपकार कर रहे हैं। महान कलाकारों के मुँह से यह सुनकर आनंद की जैसी अनुभूति होती थी, उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। उन उत्तेजक क्षणों की कल्पना शीला संधू के लिए दुर्लभ थी, अतः उन्होंने ‘राजकमल पेपरबैक्स’ की आवरण-परिकल्पना का सारा श्रेय अपनी छोटी बेटी की झोली में डालकर ही परम संतोष का अनुभव कर लिया। लेकिन यह श्रेय किसका था, इस बात को प्रयाग शुक्ल अच्छी तरह जानते हैं। वे ‘राजकमल’ से संबद्ध न होते हुए भी ‘राजकमल पेपरबैक्स’ के कला-पक्ष में गहरी दिलचस्पी रखते थे। इसके लिए उन्होंने न जाने कितने चित्रकारों से संपर्क साधा और उनके स्लाइड्स लेकर हमें दिए। प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ के आवरण के लिए उपयुक्त पेंटिंग की तलाश में वे इन पंक्तियों के लेखक के साथ कितना भटके थे, वे ही बेहतर बता सकते हैं, और अंत में यामिनी राय की पेंटिंग ‘आविष्कृत’ करके हमें लगा था कि हमने कोलंबस की तरह एक नई धरती की खोज कर ली है। हर पुस्तक के पहले पृष्ठ के लिए चित्रकार का परिचय प्रयाग शुक्ल ही लिखते थे। उनके अवदान को स्वीकार किए बिना क्या ‘राजकमल पेपरबैक्स’ की आवरण-परिकल्पना पर बात की जा सकती है!
लेकिन शीलासंधू के लेख में इस उपेक्षा के शिकार अकेले प्रयाग शुक्ल नहीं बल्कि डॉ़. नामवर सिंह भी हैं। शीला संधू के ‘राजकमल’ में आने के बाद हिंदी के कई महत्वपूर्ण लेखकों ने ‘राजकमल’ को किसी भी तरह का सहयोग देने से इनकार कर दिया था। इनमें मोहन राकेश व कमलेश्वर प्रमुख थे। ‘रेणु’ भी डाँवाडोल हो रहे थे। उस समय डॉ़. नामवर सिंह ने ‘राजकमल’ को लेखकों का सहयोग दिलाने और प्रकाशन की व्यवस्था सुचारु कराने में जो भूमिका अदा की, उसका मूल्य शीला संधू ने मात्र एक वाक्य में चुका दिया। लिखती हैं: At this crucial point, the role of advisor played by the young Namwar Singh, charismatic speaker and teacher, was as indispensable for Rajkamal as it was for me…” लेकिन अगले वाक्यांश में वे लिखती हैं: “… but at once brought with it the problem of factional, personalized literary politics.” यानी एक तरफ़ नामवर सिंह के योगदान की बात करती हैं तो दूसरी तरफ़ यह भी बता देती हैं कि उनके कारण नई समस्याएँ पैदा हुईं। हिसाब बराबर।
शीला संधू के कार्यकाल में उस समय का श्रेष्ठ सर्जनात्मक लेखन ‘राजकमल’ से प्रकाशित हुआ, यह एक ऐसा तथ्य है, जिस पर वे गर्व कर सकती हैं। लेकिन क्या यह उस परंपरा की ही स्वाभाविक परिणति नहीं थी, जिसको ओंप्रकाश ने अपनी दूरदृष्टि एवं कल्पनाशीलता के खाद-पानी से मज़बूती देकर धरती में गहरे तक पहुँचा दिया था! इस तथ्य को भुलाया नहीं जा सकता कि ओंप्रकाश ने एक सर्वांगपुष्ट ‘राजकमल प्रकाशन’ की स्थापना की थी, जिसे शीला संधू ने क्रमशः संकुचित करके विकलांग बना दिया।