• Latest
  • Trending
  • All
  • बिजनेस
  • लाइफस्टाइल
मेरी एक दुविधा, नाम था शीला संधू

मेरी एक दुविधा, नाम था शीला संधू

May 27, 2025
Ind vs Eng Test 2025: जसप्रीत बुमराह ने इंग्लैंड के खिलाफ छूटे हुए कैचों पर तोड़ी चुप्पी, कहा “बैठो और रोओ…”

Ind vs Eng Test 2025: जसप्रीत बुमराह ने इंग्लैंड के खिलाफ छूटे हुए कैचों पर तोड़ी चुप्पी, कहा “बैठो और रोओ…”

June 23, 2025
Ind vs Eng Test 2025: बेन स्टोक्स के पहले गेंदबाजी करने के फैसले पर उठे सवाल, इंग्लैंड के इस पूर्व क्रिकेटर ने कही ये बात

Ind vs Eng Test 2025: बेन स्टोक्स के पहले गेंदबाजी करने के फैसले पर उठे सवाल, इंग्लैंड के इस पूर्व क्रिकेटर ने कही ये बात

June 21, 2025
Bryan Danielson Return: ब्रायन डेनियलसन के रिर्टन पर आई ये नई अपडेट, जानिए  कब हो सकती है एईडब्ल्यू सुपरस्टार वापसी

Bryan Danielson Return: ब्रायन डेनियलसन के रिर्टन पर आई ये नई अपडेट, जानिए कब हो सकती है एईडब्ल्यू सुपरस्टार वापसी

June 20, 2025
Ind vs Eng Test 2025: यहां देखें पहले भारत बनाम इंग्लैंड टेस्ट से जुड़ी सभी जानकारियां, टॉस से लेकर लाइव स्ट्रीमिंग तक की दी गई है डिटेल्स

Ind vs Eng Test 2025: यहां देखें पहले भारत बनाम इंग्लैंड टेस्ट से जुड़ी सभी जानकारियां, टॉस से लेकर लाइव स्ट्रीमिंग तक की दी गई है डिटेल्स

June 20, 2025
AEW Grand Slam Stunt 2025:  विवादस्पद मैच के बाद फैन ने किया होटल में एमजेएफ का सामना, देखें रिपोर्ट

AEW Grand Slam Stunt 2025: विवादस्पद मैच के बाद फैन ने किया होटल में एमजेएफ का सामना, देखें रिपोर्ट

June 19, 2025
Ind vs Eng Test 2025: इंग्लैंड के खिलाफ टेस्ट सीरीज से पहले घायल हुए करुण नायर, प्रैक्टिस के दौरान लगी चोट

Ind vs Eng Test 2025: इंग्लैंड के खिलाफ टेस्ट सीरीज से पहले घायल हुए करुण नायर, प्रैक्टिस के दौरान लगी चोट

June 19, 2025
भारतीय संस्कृति का संरक्षण हम सबका दायित्व : महामंडलेश्वर आशुतोष गिरी

भारतीय संस्कृति का संरक्षण हम सबका दायित्व : महामंडलेश्वर आशुतोष गिरी

June 17, 2025
Liv Morgan Raw Injury: डब्ल्यूडब्ल्यूई रॉ में मैच के दौरान लिव मॉर्गन को लगी चोट, जानिए कैसे हुईं द जजमेंट डे की मेंबर घायल

Liv Morgan Raw Injury: डब्ल्यूडब्ल्यूई रॉ में मैच के दौरान लिव मॉर्गन को लगी चोट, जानिए कैसे हुईं द जजमेंट डे की मेंबर घायल

June 17, 2025
Anderson Tendulkar Trophy 2025: इस दिन होगी एंडरसन-तेंदुलकर ट्रॉफी की आधिकारिक घोषणा, साथ ही पटौदी पदक भी होगा शामिल

Anderson Tendulkar Trophy 2025: इस दिन होगी एंडरसन-तेंदुलकर ट्रॉफी की आधिकारिक घोषणा, साथ ही पटौदी पदक भी होगा शामिल

June 17, 2025
Goldberg Return 2025: डब्ल्यूडब्ल्यूई में गोल्डबर्ग की वापसी पर आई ये बड़ी खबर, यहां देखें पूरी रिपोर्ट

Goldberg Return 2025: डब्ल्यूडब्ल्यूई में गोल्डबर्ग की वापसी पर आई ये बड़ी खबर, यहां देखें पूरी रिपोर्ट

June 12, 2025
धर्मशिला नारायणा अस्पताल में कैंसर परीक्षण के लिए सीएम रेखा गुप्ता ने किया अत्याधुनिक मैमोग्राफी यूनिट का शुभारंभ

धर्मशिला नारायणा अस्पताल में कैंसर परीक्षण के लिए सीएम रेखा गुप्ता ने किया अत्याधुनिक मैमोग्राफी यूनिट का शुभारंभ

June 12, 2025
WTC 2025-27 Cycle: श्रीलंका बनाम बांग्लादेश टेस्ट से होगी नए डब्ल्यूटीसी 2025-2027 चक्र की शुरुआत, देखें रिपोर्ट

WTC 2025-27 Cycle: श्रीलंका बनाम बांग्लादेश टेस्ट से होगी नए डब्ल्यूटीसी 2025-2027 चक्र की शुरुआत, देखें रिपोर्ट

June 12, 2025
  • About Us
  • Contact US
Monday, June 23, 2025
  • Login
Khas Rapat
  • Home
  • राष्ट्रीय न्यूज़
  • अंतराष्ट्रीय
  • राज्य
  • खेल
  • बिजनेस
  • लाइफस्टाइल
  • मनोरंजन
  • वेब स्टोरीज
  • धर्म
No Result
View All Result
Khas Rapat
No Result
View All Result
Home साहित्य

मेरी एक दुविधा, नाम था शीला संधू

मूलतः अंग्रेजी में लिखित उस टैस्टोमोनियल का यह अंतिम अनुच्छेद है, जो ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ के माननीय सचिव लक्ष्मीचंद्र जैन ने मेरे वहाँ से कार्यमुक्त होते समय, कृपापूर्वक मुझे दिया था। इस अनुच्छेद के कुल जमा पाँच वाक्यों में उन्होंने मेरी प्रशंसा करने के साथ-साथ यह भी बता दिया था कि वे मुझे अनिच्छापूर्वक कार्यमुक्त कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं, यह भी, लेकिन टैस्ट्रीमोनियल पर हस्ताक्षर करते ही उन्हें लगा होगा कि अपनी ओर से अनिच्छापूर्वक कार्यमुक्त करने का यह कारण बताना उचित नहीं है और उन्होंने उपर्युक्त अनुच्छेद का अधोरेखांकित वाक्य स्ट्राइक-ऑफ कर दिया।

by सुमित नैथानी
May 27, 2025
in साहित्य
0
मेरी एक दुविधा, नाम था शीला संधू
495
SHARES
1.4k
VIEWS
Share on FacebookShare on Twitter

अंतर्विरोधों से साक्षात्कार-1

“He has ever been willing to share responsibility and never shirked arduous duities. He is sincere, straightforward and of amiable disposition. I am sure he will make a mark for himself in whatever field he chooses. We are reluctantly relieving him becouse of his inability to go to and join the Delhi Office of the ‘Bharatiya Jnanpith’. I wish him all success.”

(‘‘वे जिम्मेदारी उठाने और कठिन कर्तव्यों का निर्वाह करने के लिए हमेशा तैयार रहे हैं। वे ईमानदार, स्पष्टवादी और स्वभाव से मिलनसार हैं। मुझे यकीन है कि वे अपने लिए जो भी क्षेत्र चुनेंगे, उसमें अपनी छाप छोड़ेंगे। वे क्योंकि हमारे साथ ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ के दिल्ली कार्यालय में जाने के लिए तैयार नहीं हैं, अतएव हम उन्हें अनिच्छापूर्वक कार्यमुक्त कर रहे हैं। मैं उनकी पूरी सफलता की कामना करता हूँ।’’)

 

मूलतः अंग्रेजी में लिखित उस टैस्टोमोनियल का यह अंतिम अनुच्छेद है, जो ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ के माननीय सचिव लक्ष्मीचंद्र जैन ने मेरे वहाँ से कार्यमुक्त होते समय, कृपापूर्वक मुझे दिया था। इस अनुच्छेद के कुल जमा पाँच वाक्यों में उन्होंने मेरी प्रशंसा करने के साथ-साथ यह भी बता दिया था कि वे मुझे अनिच्छापूर्वक कार्यमुक्त कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं, यह भी, लेकिन टैस्ट्रीमोनियल पर हस्ताक्षर करते ही उन्हें लगा होगा कि अपनी ओर से अनिच्छापूर्वक कार्यमुक्त करने का यह कारण बताना उचित नहीं है और उन्होंने उपर्युक्त अनुच्छेद का अधोरेखांकित वाक्य स्ट्राइक-ऑफ कर दिया। कायदे से उस ड्राफ्ट को दोबारा टाइप कराना जरूरी था, पर न जाने किस मुग़ालते में अपने स्टैनो को देने के स्थान पर उन्होंने वह ड्राफ्ट मुझे थमा दिया। मैंने एक नज़र उस पर डाली और सारे मामले को समझकर भी मुस्कुराता हुआ चुपचाप वहाँ से चला आया; सोचा कि चलो, दोस्तों को सुनाने के लिए एक लतीफा मिल गया है।

यह घटना 5 मार्च 1970 की है और 1 अप्रैल 1970 को दिल्ली पहुँचकर मैं2 अप्रैल 1970 को पहले ‘राजपाल एंड संस’ के विशेष कार्याधिकारी ईश्वरचंद्र से मिला, तो उन्होंने मुझे यह कहकर टाल दिया कि अभी उनके यहाँ कोई स्थान रिक्त नहीं है लेकिन बातों-बातों में यह भी जता दिया कि वे ‘ज्ञानपीठ’ के कलकत्ता स्थित कार्यालय में घटी घटनाओं और उनमें मेरी संलिप्तता से परिचित हैं, इसलिए मुझे रखने में असमर्थ हैं। यहाँ से निराशा मिली तो मैं ‘नेशनल पब्लिशिंग हाउस’ के कार्यालय में पहुँचा और प्रकाशनगृह के स्वामी कन्हैयालाल मलिक के बेटे सुरेंद्र मलिक से मिला। उन्होंने कोई लाग-लपेट नहीं की और बोले, ‘‘गुप्तजी, दिल्ली के प्रकाशकों में आपकी यूनियनबाज़ी की फुसफुसाहट मैंने सुनी है; इसलिए मैं तो आपको नहीं रख सकता, लेकिन ‘राजकमल’ के प्रकाशन- अधिकारी राजेंद्र शर्मा कुछ दिन पहले ही नौकरी छोड़कर चले गए हैं और उनकी जगह अभी कोई नियुक्ति नहीं हुई है। आप वहाँ आवेदन कर दें। उसकी मैनेजिंग डायरैक्टर शीला संधू कम्युनिस्ट हैं, तो हो सकता है कि वहाँ आपकी बात बन जाए।’’

मुझे सुरेंद्र मलिक की साफगोई अच्छी लगी और मैं उनका शुक्रिया अदा करके बाहर आ गया।

अगले दिन मैंने ‘राजकमल प्रकाशन’ में आवेदनपत्र भेजा, तो उसके साथ लक्ष्मीचंद्र जैन के टैस्टीमोनियल की यथावत प्रतिलिपि भी नत्थी कर दी। उस समय मुझे पता नहीं था कि इस टैस्टीमोनियल का क्या असर होगा, लेकिन वह आगे की बात है, फिलहाल सिर्फ यह कि शीला संधू ने मुझे साक्षात्कार के लिए8 अप्रैल को बुला लिया, तो एक नया ड्रामा शुरू हुआ। दिल्ली आकर मैं अपने दोस्त भीमसेन त्यागी के पास ठहरा था, जिसका निवास नवीन शाहदरा में था और उसके पड़ोस में ही रहता था हरिपाल त्यागी। उस समय मेरी उम्र कुल 35 वर्ष थी, लेकिन मैं पूरी तरह धवलकेशी हो चुका था। भीमसेन व हरिपाल दोनों ने कहा कि इंटरव्यू देने जा रहे हो और बाल उम्र से बहुत पहले ही सफेद! असर नहीं पड़ेगा, इन्हें डाई करो। मैं डाई करने के मूड में बिल्कुल नहीं था, मगर उन दोनों के सिर पर भूत सवार हो चुका था मेरे बाल डाई करने का; लाख समझाने पर भी जब मैं नहीं माना, तो एक ने कसकर मेरे हाथ पकड़े और दूसरे ने मेरे बालों में डाई लगा दिया। इस तरह बाल डाई करने का जो सिलसिला चालू हुआ, वह लगभग पंद्रह साल तक चला।

बहरहाल, 8 अप्रैल को मैं निश्चित समय पर इंटरव्यू देने ‘राजकमल प्रकाशन’ के ऑफिस में पहुँचा और शीला संधू के सामने हाज़िर हुआ। उन्होंने मेरे घर-परिवार की सामान्य-सी जानकारी लेने के बाद पूछा, ‘‘बी.ए. में आपके सबजेक्ट क्या थे?’’

‘‘संस्कृत-साहित्य, अंग्रेज़ी साहित्य और हिंदी साहित्य…’’

‘‘यानी पूरी तरह साहित्य में रमे हुए हैं आप!’’

‘‘जी, कुछ क्रिएटिव राइटिंग और संपादन का काम भी किया है मैंने….’’

‘‘फिर बुक प्रोडक्शन में कैसे आ गए?’’

‘‘मेरी दिलचस्पी तो अध्यापन में थी, पर हालात ने इधर टेल दिया। वैसे अपनी अध्यापन की भूख मिटाने के लिए मैं ट्यूशंस करता रहा है।’’

‘‘अच्छा!’’ शीला संधू ने तनिक विस्मित लहजे में कहा, फिर बोलीं, ‘‘ ’राजकमल’ में आने से पहले मैं भी दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाती थी।’’

उन्होंने जो कहा, मैंने सुन लिया; लेकिन मेरा ध्यान तो उन्हें अधिक-से-अधिक प्रभावित करने की तरफ लगा हुआ था, ‘‘आपको अपना कुछ काम दिखाना चाहता हूँ,’’ कहते-कहते में अपना ब्रीफकेस खोलने लगा, तो वे मुझे बरजते हुए बोलीं, ‘‘नहीं नहीं मिस्टर गुप्ता, इस सबकी जरूरत नहीं है…’’

अपने उत्साह में मैं उनकी बात काटकर बोला, ‘‘पुरानी और नई पीढ़ी के कई लेखकों से मेरे व्यक्तिगत संबंध हैं…’’

‘‘लेकिन मैं लेखकों से संपर्क साधने का काम खुद करती हूँ, आपको सिर्फ प्रोडक्शन देखनी होगी और पांडुलिपियों की प्रेसकॉपी बनाने के अलावा हर महीने ‘राजकमल’ का हाउस-जर्नल ‘प्रकाशन समाचार’ तैयार करना होगा…’’

‘‘ ‘करना होगा…’ मतलब? आप तो मुझे मेरी जिम्मेदारियों के बारे में इस तरह समझा रही हैं जैसे ‘राजकमल प्रकाशन’ में मेरा एप्वाइंटमेंट हो चुका है।’’

‘‘यही समझ लो मिस्टर गुप्ता कि आपका एप्वाइंटमेंट हो चुका है। मैं ऐसा मानती हूँ कि जिसकी तारीफ़ उसका पहला एंप्लायर भी करे, उसके बारे में और किसी पूछताछ की ज़रूरत नहीं रह जाती। यह इंटरव्यू महज एक फॉर्मेलिटी है…फ़ैसला मैं पहले ही कर चुकी थी। 12 अप्रैल को मेरा पटना जाने का प्रोग्राम है और 19 तक लौटूँगी, तो आप यहाँ 20 अप्रैल को ज्यॉयन कर लीजिए.. एप्वाइंटमेंट लेटर आपको उसी दिन मिल जाएगा।’’

‘‘और वेतन?’’

‘‘उसकी चिंता आप न करें, मैं देख लूँगी!’’

शीला संधू की बातचीत के लहजे और उनके व्यक्तित्व में मुझे कुछ ऐसा अपनापन महसूस हो रहा था कि मेरे मुँह से अनायास निकल गया, ’’मैंने तो बस यूँ ही पूछ लिया, आपके रहते मुझे कोई चिंता नहीं है…’’ कहकर मैं उठने लगा तो वे बोलीं, ‘‘जाते-जाते दो मिनट के लिए सत्तजी से भी मिल लो, हमारे एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं वे, एकाउंट्स डिपार्टमेंट के इंचार्ज, उनसे मिलकर आपको अच्छा लगेगा और आपसे मिलकर उन्हें।’’

सत्तजी यानी सत्यप्रकाश गुप्ता की केबिन शीला संधू की केबिन के बगल में ही थी। मैं उनके पास गया, तो उन्होंने मुझे ‘राजकमल’ से जुड़ने के लिए बधाई देते हुए मेरा स्वागत किया और कुछ सामान्य किस्म की बातें करने के बाद सीधा सवाल किया, ‘‘आपको ‘ज्ञानपीठ’ में कितनी तनख्वाह मिल रही थी?’’

यह सवाल करने के पीछे उनकी मंशा को मैं नहीं भाँप सका। मैंने सहज भाव से बता दिया——चार सौ अस्सी रुपए, और पहली अप्रैल से नए साल का इनक्रीमेंट मिलाकर सात सौ रुपए मिलने थे, लेकिन मैं कुछ नीतिगत कारणों से उनके साथ दिल्ली नहीं आया और मैंने ‘ज्ञानपीठ’ की नौकरी को अलविदा कह दिया।’’

मैं उम्मीद कर रहा था कि सत्यप्रकाश कुछ और पूछेंगे, पर इसके बाद उन्होंने कोई सवाल नहीं किया और बोले, ’’अच्छा, तो फिर 20 अप्रैल को मुलाक़ात होगी।’’ यानी काम की बात हो चुकी, अब आप जाइए।

∙

‘राजकमल प्रकाशन’ में मेरा पहला दिन। सत्यप्रकाश ने मुझे एप्वाइंटमेंट लेटर सौंपा। पढ़ा तो मैं अवाक रह गया… वेतन मात्र चार सौ अस्सी रुपए प्रति माह और डेजिग्नेशन ‘प्रोडक्शन ऑफीसर’! मैं शीला संधू के केबिन में गया, ‘‘यह क्या मिसेज संधू…’’

उन्होंने मुस्कुराते हुए मेरी बात काटी, ‘‘मिसेज़ संधू नहीं, शीलाजी! राजकमल का सारा स्टाफ, ऊपर से नीचे तक, मुझे इसी नाम से बुलाता है।’’

‘‘सॉरी… यह क्या है, शीलाजी!’’ कहते हुए मैंने एप्वाइंटमेंट लेटर उनके सामने रख दिया।

‘‘क्यों क्या हुआ?’’ उन्होंने भोलेपन से पूछा।

‘‘इसमें वेतन सिर्फ 480 रुपए महीना और पद ‘प्रोडक्शन ऑफीसर’ लिखा हैं। ये दोनों बातें मुझे स्वीकार नहीं।’’

‘‘जहाँ तक वेतन का सवाल है, सत्तजी अपने डिपार्टमेंट के हैड और हमारे बुजुर्ग हैं, क्या किया जाए। उन्हें जो मुनासिब लगा, उन्होंने लिख दिया। आप फिलहाल इसे स्वीकार कर लें और मेरे ऊपर भरोसा रखें। लेकिन डैजिग्नेशन पर आपकी क्या आपति है, मुझे बताएँ..’’

वेतन के मामले में अब मेरे पास कोई चारा नहीं बचा था सिवाय उनके ऊपर भरोसा रखने के; लेकिन दूसरे सवाल पर मैंने कहा, ‘‘मेरे हिस्से में क्योंकि संपादकीय काम भी काफी रहेंगे, इसलिए चाहता हूँ कि प्रोडक्शन ऑफीसर नहीं, मेरा डैजिगनेशन पब्लिकेशन ऑफिसर लिखा जाए।’’

‘‘यह मेरे अधिकार-क्षेत्र की बात है, इसमें अभी आपके मन-मुताबिक संशोधन करा देती हूँ।’’ और उन्होंने अपनी स्टेनो को बुलाकर एप्वाइंटमेंट लेटर यथोचित संशोधन के साथ रीटाइप करने को दे दिया।

एक सप्ताह बीतते-न-बीतते शीलाजी ने एक लिफाफा मुझे दिया; खोलकर देखा, सौ-सौ रुपए के दो नोट।

मैंने सवालिया नजरों से उनकी तरफ देखा, तो वे बोलीं, ‘‘चुपचाप रख लो इसे, यह आपका ड्यू है, कोई मेहरबानी नहीं।’’

मन पर बोझ तो पड़ा, लेकिन लिफाफा मैंने रख लिया। उसके बाद से वह लिफाफा मुझे लंबे समय तक हर महीने मिलता रहा, हालाँकि हर बार लिफाफा हाथ में पकड़ते हुए मेरे अंदर कुछ टूट जाता था। कालांतर में मैंने जाना कि शीलाजी की तरफ से ऐसा छोटा या बड़ा लिफाफा स्टाफ के प्रायः हर सदस्य को मिलता है। इस पर मुझे कलकत्ता के अपने एक बंगाली मित्र ज्ञानदत्त की याद हो आई थी, जो अंतर्मन से कम्युनिस्ट थे. सच्चे कम्युनिस्ट। वे जिस दफ्तर में जनरल मैनजर थे, उसका सुप्रीम बॉस हर सोमवार को मंदिर में जाता और सैकड़ों भिखारियों को कतार में बैठाकर भोजन कराता, लेकिन दफ्तर में कर्मचारियों का शोषण करता। ज्ञानदत्त उसकी दानवृत्ति से परिचित नहीं थे और दफ्तर में कर्मचारियों के प्रति उसके शोषक रूप को पहचान कर भी उसे बर्दाश्त किए जा रहे थे, मगर उनके सामने जिस दिन उसका पाखंडी चरित्र उजागर हुआ, उसी दिन उन्होंने उसे अलविदा कह दिया। शीलाजी तो स्वयं कम्युनिस्ट थीं और फिर भी वे अपने कर्मचारियों को उनका ड्यू न देकर लिफाफे की शक्ल में उन पर दया दिखाने का पाखंड करती थीं, लेकिन मैं उनके वाग्जाल में फँसकर उस समय उनके वास्तविक चरित्र को नहीं पहचान पाया था और उस समय ही क्यों, बाद में भी एक अरसे तक नहीं पहचान पाया।

∙

‘राजकमल’ में कुछ दिन काम करके ही मैं समझ गया कि शीलाजी दो व्यक्तियों के सामने कुछ बोल नहीं पातीं और ये व्यक्ति हैं एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर सत्यप्रकाश गुप्ता और विक्रय व्यवस्थापक जगदीश शर्मा। कारण यह कि शीलाजी शिक्षा-जगत की आदर्शवादिता से निकलकर प्रकाशन-जगत की व्यावहारिकता में आई थीं और इस दुनिया के हिसाब-किताब उनकी समझ में नहीं आते थे। इसके विपरीत सत्यप्रकाश ‘राजकमल’ की स्थापना के पहले दिन से इसके साथ जुड़े थे यानी उन्नीस वर्षों से इसका लेखा विभाग सँभालते आ रहे थे तो इस विभाग के हर दाँव-पेंच पर उनकी मजबूत पकड़ थी, जिसके सामने शीलाजी को नतमस्तक होना पड़ता था। इसकी बानगी मेरे वेतन के प्रश्न पर ही देखने को मिल गई थी।

जगदीश शर्मा सिर्फ मैट्रिक पास थे; खद्दर का झक् सफेद कुरता-पाजामा पहनते और उसके ऊपर जैकेट; लंबोतरा चेहरा चिकनाई से दमकता हुआ। उनकी विशेषता यह थी कि वे ‘राजकमल’ में आने से पहले ‘साहित्यरत्न भंडार, आगरा’ में नौकरी करते थे, जहाँ कुछ पाठ्यपुस्तकें लिखने तथा पाठ्यक्रम निर्धारित करनेवाले प्रोफेसरों से उनके संबंध बन गए थे और साथ ही उन्होंने प्रकाशकों से कमीशन की ज्यादा परसेंटेज के लिए बहस करने में महारत हासिल कर ली थी। अपनी इस पूँजी के साथ 1965 में जब वे ‘राजकमल’ में आए, उससे कुछ महीने पहले ही शीलाजी ने इस प्रकाशन संस्थान का अधिग्रहण किया था। चतुर वे थे ही, उन्होंने माँप लिया कि इस महिला को व्यवसाय की समझ नहीं है, तो उन्होंने उनके ऊपर अपना रंग चढ़ाना शुरू कर दिया; वे भी उन्हें व्यवसायकुशल मानने और उनकी बातों पर कान देने लगी थीं, लेकिन वे यह नहीं समझ पाईं कि जगदीश शर्मा हीन भावना से ग्रस्त हैं और इसीलिए स्वयं को असुरक्षित महसूस करते रहते हैं। इसका खुलासा ‘राजकमल’ में मेरी नियुक्ति के बाद हुआ। जगदीश शर्मा ने देखा कि वे स्वयं तो दसवीं पास हैं और सामनेवाला न केवल एम.ए. पास होने के अलावा योग्यता, काम की समझ व ऊर्जा से लैस है बल्कि शीलाजी भी उसके इन गुणों से प्रभावित हो रही हैं, तो उनका आत्मविश्वास डोल गया और उन्होंने मेरे साथ निकटता बढ़ाकर मेरे ऊपर अपना रंग चढ़ाने की कोशिश की। एक दिन कहने लगे, ‘‘शीलाजी तो बेचारी भोली थीं, उन्हें व्यवसाय के गुर मैंने सिखए हैं…’’

उनके इस कथन की मेरे ऊपर क्या प्रतिक्रिया हुई है, यह देखने के लिए वे कुछ पल ठहरकर बोले, “आपको विश्वास नहीं हो रहा है न, तो सुनो—— दो-तीन साल पहले की बात है, मेरी भोपाल के एक बुकसेलर से टेलीफोन पर कमीशन को लेकर बात हो रही थी; वह एक पसेंट ज़्यादा की माँग पर अड़ा था और मैं इसके लिए तैयार नहीं था। बहस-मुबाहसे में मेरी आवाज़ ऊँची हो गई…’’

‘‘वैसे मैं देख रहा हूँ कि आप…’’ उनकी बात बीच में काटकर मैंने कहा, ’’टेलीफोन पर बात हमेशा ऊँची आवाज़ में ही करते हैं, इतनी ऊँची आवाज़ में कि पूरा स्टाफ ही नहीं, अपनी केबिन में बैठी शीलाजी भी सुन सकें कि आप क्या कह रहे हैं!’’

उन्होंने मेरे व्यंग्य को तो समझा नहीं और ख़ुश होकर बोले, ’’सही कहा आपने गुप्ताजी । टेलीफोन पर हमारी बात ख़त्म हुई, तो शीलाजी ने मुझे अंदर बुलाया और बोलीं——‘क्या एक परसेंट पर इतनी खिचखिच कर रहे थे जगदीशजी, देकर खत्म क्यों नहीं करते बात को।’ तब मैंने उन्हें समझाया कि साल-भर के कुल बिजनेस पर एक परसेंट के क्या मायने होंगे; इतना ही नहीं बल्कि उसकी देखादेखी दूसरे तमाम बुकसेलर्स भी एक परसेंट ज़़्यादा की डिमांड करेंगे। आखिर बहुत देर की माथापच्ची के बाद बात उनकी समझ में आ गई।’’

जगदीश शर्मा ने एक तरफ मेरे साथ इस तरह की बातें कीं, तो दूसरी तरफ मेरे विरुद्ध शीलाजी के कान भरने शुरू किए—— मेरे हर काम को वे शीलाजी के सामने निगेटिव बनाकर पेश करते। शीलाजी कान की कच्ची तो थीं ही, उन्हें जगदीश शर्मा की बातों पर विश्वास हो जाता। नतीजा यह कि वे मुझे नापसंद करने लगीं और यह नापसंदगी अक्सर मेरे प्रति कटु व्यवहार में व्यक्त होती, जिसे बर्दाश्त करना मेरे लिए उत्तरोत्तर मुश्किल होता जा रहा था। कलकत्ता के लगभग बारह साल के अपने जीवन में मैंने छह नौकरियाँ बदली थीं—— हर नौकरी में सुबह स्वस्थ मन से दफ्तर गया और शाम को लौटा तो जेब में हिसाब लेकर, फिर यहाँ क्यों बर्दाश्त कर रहा हूँ? आखिरकार आठ महीने दस दिन की नौकरी पूरी करके मैंने 1 जनवरी 1971 को राजकमल की नौकरी से इस्तीफा दे दिया और इस्तीफे में लिखा भी क्या, ज़रा देखिए——

 

 

1 जनवरी, 1971

आदरणीय शीलाजी,

मैं बराबर महसूस कर रहा हूँ कि आप मेरे काम से संतुष्ट नहीं हैं और अगर किसी के काम से उसका बॉस ही संतुष्ट न हो तो नौकरी की लाश ढोते रहने का कोई अर्थ नहीं रहता। अतएव इस पत्र के माध्यम से मैं अपना इस्तीफ़ा आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ। जहाँ तक नोटिस-पीरियड का सवाल है, क्योंकि प्रोडक्शन व एडीटोरियल के पूरे काम की जानकारी मेरे सिवाय किसी दूसरे को नहीं है, तो मैं अपनी तरफ से एक महीने के नोटिस की सीमा नहीं थोपना चाहता; आपको जल्दी-से-जल्दी जब कोई उपयुक्त विकल्प मिल जाए, आप मुझे सूचित कर दें। मैं उसे सारा काम सँभलवाकर मुक्त हो जाऊँगा।

सविनय,

मोहन गुप्त

 

शीलाजी ने इस्तीफा पढ़कर मुझे बुलाया और जो कहा, वह मेरे नहले पर दहला था; बोलीं, ‘‘आपने इस्तीफा दे दिया, अच्छा किया गुप्ताजी!दरअसल आप योग्य हैं और कर्मठ भी, लेकिन ‘राजकमल’ जैसे बड़े संस्थान का काम आपसे सँभल नहीं रहा था; किसी छोटे प्रकाशन संस्थान में शांति से बैठकर आप उसका काम बखूबी सँभाल सकते हैं,’’ कहकर वे कुछ पल के लिए मौन रहीं. फिर बोलीं, ‘‘आपने नोटिस पीरियड तय करने का भार मेरे ऊपर डाला है, तो मैं इसके लिए तीन महीने तय करती हूँ। आप दिल्ली में नए हैं और आपके कंधों पर परिवार की जिम्मेदारी है। ऐसी स्थिति में मैं आपको अचानक बेरोज़गार होते नहीं देख सकती। इन तीन महीनों में आप अपने लिए नौकरी तलाश करें और मैं अपने लिए आपका कोई उपयुक्त विकल्प तलाश करती हूँ। शर्त यह रहेगी कि आपको अगर कल नौकरी मिल जाती है तो मुझे ‘राजकमल’ के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति मिले या न मिले, मैं आपको तत्काल कार्यमुक्त कर दूँगी। इसके विपरीत अगर मुझे कल कोई उपयुक्त व्यक्ति मिल जाता है तो फिर भी मैं आपको पूरे तीन महीने तक रखूँगी। क्यों, ठीक है न!’’

‘‘सिर्फ ठीक नहीं, आपकी सदाशयता झलक रही है इसमें। वैसे मैं इसका कोई गलत फ़ायदा नहीं उठाऊँगा और पूरी ईमानदारी से दूसरी नौकरी की तलाश में जुटूँगा।’’

∙

मेरा इस्तीफा मंजूर हो जाने से जगदीश शर्मा निश्चिंत हो गए कि अब तो मोहन गुप्त नाम का यह आदमी जानेवाला है ही, अब इसकी जड़ क्या खोदनी! लिहाजा उन्होंने मेरे विरुद्ध शीलाजी के कान भरने बंद कर दिए। जहाँ तक मेरा सवाल था, मैं जैसा काम पहले कर रहा था, वैसा ही अब भी करता रहा; न यह सोचकर कि अब तो यहाँ से विदा होने का समय आ गया है, मैंने अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में कोई कोताही नहीं की और न शीलाजी को प्रभावित करने के लिए कोई अतिरिक्त काम किया; लेकिन शीलाजी का मन क्योंकि मेरे प्रति अब शांत रहने लगा था, तो मेरे जिन कामों में उन्हें पहले दोष-ही-दोष दिखाई देते थे, उन्हीं में अब अच्छाई दिखने लगी। यह सिर्फ दृष्टिकोण का अंतर था, और कुछ नहीं; लेकिन इस प्रसंग को परिणति तक पहुँचाने से पहले मैं यहाँ एक और बात का उल्लेख करना चाहूँगा। बात मामूली है, लेकिन उसके निहितार्थ मामूली नहीं हैं। हुआ यों कि एक दिन सुबह दफ्तर पहुँचते ही मुझे सिरदर्द की शिकायत हो गई। शुरू में मैंने उसे नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की, मगर दोएक घंटे बीतते-न-बीतते मेरे लिए जब काम करना मुश्किल हो गया, तो मैं शीलाजी के पास गया और उन्हें अपनी स्थिति बताकर उनसे घर जाने की इजाजत माँगी। वे कुछ पल तक मेरा चेहरा ग़ौर से देखती रहीं, फिर मुझे बैठने का इशारा करके बोलीं, ‘‘आपने इन दिनों में अपनी आँखों का चैकअप कराया है?’’

‘‘नहीं, वैसी कोई ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई।’’

‘‘पढ़ने में आँखों पर दबाव महसूस नहीं होता?’’

‘‘नहीं। लेकिन आप यह सब क्यों पूछ रही हैं?’’

‘‘आपको चाहे महसूस न होता हो, लेकिन मैं सुबह की मीटिंग में कई दिन से लक्ष्य कर रही हूँ कि आपकी आईसाइट में कुछ तो गड़बड़ है,’’ कहकर वे चुप हो गईं और थोड़ा ठहरकर बोली, ‘‘ठीक है, अभी आप घर जाइए, कल सुबह बात करेंगे।’’

अगले दिन मैं दफ्तर पहुँचा तो शीलाजी ने आदेश के स्वर में कहा,‘‘मैंने आपके लिए डॉ. श्रॉफ़ से अप्वाइंटमेंट ले लिया है। अस्पताल की ओपीडी में लंबी लाइन लगती है, इसलिए उनकी रेजीडेंस का अप्वाइंटमेंट लिया है। हमारे ऑफ़िस के ठीक पीछे है ये जगह, आप वहीं बारह बजे पहुँच जाइए… और हाँ, आपको कोई फीस नहीं देनी है, वो मेरे व्यक्तिगत बिल में जुड़ जाएगी।’’

मैं दोपहर में ठीक समय पर डॉ. श्रॉफ़ के सामने हाज़िर हुआ। उन्होंने मनोयोगपूर्वक मेरी आँखों की जाँच की, तो पता लगा कि नंबर काफी बढ़ा हुआ हैं; और उस दिन से मैं चश्मेवाला हो गया।

अब लौटें उस प्रसंग पर जो मैंने अधूरा छोड़ दिया था। बात चल रही थी कि शांत चित्त से देखने पर शीलाजी को मेरे काम अब अच्छे लगने लगे थे और रोज़मर्रा की खिटपिट नहीं रह गई थी। देखते-ही-देखते तीन महीने का नोटिस पीरियड समाप्त होने को आया। इस बीच मैंने अपने एक हितैषी रामनिवास जाजू से अपने लिए नौकरी की बात की थी। वे बिरला बंधुओं की एक विराट इंजीनियरिंग कंपनी के वाइस-प्रेज़ीडेंट थे और मुझे पूरी उम्मीद थी कि वे मेरे लिए कुछ करेंगे, लेकिन उन्होंने कुछ तकनीकी मजबूरियाँ बताकर हाथ खड़े कर दिए, तो फिर मैंने किसी और नौकरी की तलाश नहीं की, क्योंकि ‘राजकमल’ में ये चंद महीने गुज़ारकर ही मेरा मानस कंडीशंड हो गया था और मुझे हिंदी के अन्य सब प्रकाशक बौने लगने थे। नतीजतन मैंने भीमसेन त्यागी के साथ मिलकर अपना प्रकाशन शुरू करने का मन बना लिया था, जिसके आर्थिक पक्ष की ज़िम्मेदारी सँभालने के लिए कलकत्ता के मेरे पूर्व-एंप्लायर, ’साप्ताहिक आर्थिक जगत’ के स्वामी, रमेशनारायण वाजपेयी तैयार हो गए थे, लेकिन शीलाजी की तरफ से कुछ सुराग नहीं मिल रहा था कि उन्हें अब तक मेरा कोई  स्थानापन्न मिला या नहीं। आखिर 30 मार्च को मैंने ही उनसे कहा, ‘‘शीलाजी, कल हमारा नोटिस पीरियड समाप्त हो रहा है। आपको मेरा कोई स्थानापन्न मिला?’’

‘‘नहीं…’’ कहकर शीलाजी ने प्रतिप्रश्न किया, ‘‘आपने कोई नौकरी तलाश की अपने लिए?’’

‘‘मुझे अब नौकरी नहीं करनी है। मैं अपना स्वयं का प्रकाशन शुरू करूँगा।’’

मेरी बात सुनकर शीलाजी को जैसे धक्का लगा हो; वे एकदम चुप होकर अपने में खो गईं।

‘‘क्या हुआ शीलाजी? मैंने कुछ गलत कह दिया क्या?’’

‘‘नहीं-नहीं,’’ शीलाजी अपने में लौटीं, ‘‘मैं सोच रही थी कि इस बीच ‘राजकमल‘ के काम पर आपकी पकड़ बढ़ी है, आपके अंदर आत्मविश्वास पैदा हुआ है…’’

‘‘तो?’’

’’तो क्या… सोच रही थी कि आप राजकमल में कंटीन्यू करते तो मुझे ख़ुशी होती, लेकिन आपने तो..’’

’’आप जो कह रही हैं, उसे लेकर क्या आप सचमुच गंभीर हैं?’’

‘‘अगर कहूँ कि मैं सचमुच गंभीर हूँ तो…’’

‘‘तो मैं अपना फैसला बदल भी सकता हूँ।’’

और, इस तरह बातों-बातों में मेरा फ़ैसला बदल गया… पल-भर में ही ‘राजकमल‘ की और मेरी नियति एकमेक हो गई।

∙

भीमसेन त्यागी तथा रमेशनारायण वाजपेयी को मैंने अपने बदले हुए निर्णय की सूचना दी, तो कुछ कड़वी- मीठी बातों के आदान-प्रदान के बाद वे दोनों मेरे दृष्टिकोण से सहमत हुए और इस तरह अप्रैल 1971 की पहली तारीख से ’राजकमल’ में मेरा दूसरा जन्म हुआ। जगदीश शर्मा ने समझ लिया कि मोहन गुप्त को अब यहाँ से हिलाना संभव नहीं हैं, और उन्होंने अपनी हरकतें लगभग बंद ही कर दीं, तो उनके कारण जो तनाव मुझे झेलने पड़ते थे, उनसे मुक्त होकर मैंने प्रोडक्शन का काम देखने के साथ-साथ न केवल अपने संपादकीय दायित्वों की तरफ भी अधिक ध्यान देना शुरू किया बल्कि ‘राजकमल’ की हित- साधना के लिए मैं अपनी सीमा से बाहर जाकर भी दायित्व ओढ़ने लगा। उसी का यह एक उदाहरण है——— मेरे एक दोस्त ने मुझे बताया कि भारत सरकार केरक्षा मंत्रालय में थलसेना, वायुसेना व जलसेना के जवानों के मनोरंजनार्थ बड़ी तादाद में किताबों की खरीद होती है। इस जानकारी से मैं आश्चर्यचकित रह गया, क्योंकि हमारे ‘चतुर’ विक्रय व्यवस्थापक महोदय इस तथ्य से अनभिज्ञ थे। मैंने इस सिलसिले की कुछ और बुनियादी जानकारियाँ जुटाकर सारा मामला जगदीश शर्मा की उपस्थिति में ही शीलाजी के सामने पेश किया। उन्होंने ध्यानपूर्वक सारी बात सुनी और प्रश्नसूचक दृष्टि से जगदीश शर्मा की तरफ देखा। जगदीश शर्मा बोले, ‘‘आप तो जानती ही हैं शीलाजी कि इन विभागों से बिजनेस लेने के लिए मेजर-कर्नल जैसे अफसरों के साथ अंग्रेजी में बात करनी पड़ेगी और उनके साथ बैठकर ‘खाना’-‘पीना’ भी पड़ेगा, लेकिन मै अंग्रेज़ी नहीं बोल सकता और खाने-पीने के मामले में भी शुद्ध शाकाहारी हूँ…’’

शीलाजी मेरी तरफ देखकर बोलीं, ‘‘इन्होंने तो हाथ झाड़ दिए। अब?’’

‘‘आप चिंता न करें। मैं बोला हूँ तो कुंडा भी मैं ही खोलूँगा!’’

‘‘यानी सेल्स डिपार्टमेंट का काम आप करेंगे?’’

‘‘करना ही पड़ेगा; इतनी बड़ी पॉसिबिलिटीज़ को अनएक्सप्लोर्ड तो नहीं छोड़ा जा सकता!’’

और कहना न होगा कि उस दिन से एडीटोरियल व प्रोडक्शन के अलावा यह जिम्मेदारी भी मेरे कंधों पर आ गई, जिसका निर्वाह मैंने पूरी ईमानदारी से किया। नतीजतन ’राजकमल’ को जलसेना के तो नहीं, मगर वायुसेना व थलसेना के बड़े ऑर्डर कई साल तक मिलते रहे। शायद इसी का परिणाम था कि शीलाजी ने मुझे पब्लिकेशन ऑफीसर से पदोन्नत करके पब्लिकेशन डायरेक्टर बनाने का निश्चय किया, लेकिन यह निश्चय करते ही उन्हें लगा होगा कि अकेले मोहन गुप्त को पदोन्नत करने से जगदीश शर्मा आहत होंगे, तो उन्होंने जगदीश शर्मा को भी मेरे साथ पदोन्नत करके सेल्स डायरेक्टर बनाया, किंतु इस पदोन्नति के लगभग एक साल बाद ही एक दिन अचानक शीलाजी ने उनकी छुट्टी कर दी; क्यों? कोई नहीं जान पाया——न तब और न बाद में कभी; सारे स्टाफ ने बस यही देखा कि उस दिन सुबह वे रोज़ की तरह दफ़्तर आए, शीलाजी के साथ एक मीटिंग की और दोपहर के बारह बजते-न-बजते अपनी मेज साफ करके तेज़ी से बाहर निकल गए।

∙

अब सुबह की मीटिंग्स में शीलाजी के और मेरे बीच यदाकदा काम की बातों के अलावा कुछ मेरी-तेरी अर्थात निजी बातें भी होने लगी थीं। उन्हीं के आधार पर मैंने जाना कि शीलाजी शुरू से ही बॉबकट आधुनिका नहीं थीं। उनके पिता प्रोफेसर राजेंद्र सिंह सीधे-सच्चे गाँधीवादी थे और उनका रहन-सहन एकदम साधारण था। उनकी छत्रछाया में पली-बढ़ी बीबी सुशील कौर (परवर्ती काल की शीला संधू) गुरबानी का पाठ करतीं, चरखा चलातीं, सफेद खादी का कुरता-सलवार पहनतीं और साइकिल से स्कूल जातीं, लेकिन फिर प्रथम पोस्ट-ग्रेजुएशन की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने के बाद उनकी जिंदगी की रफ़्तार ऐसी तेज़ हुई कि उन्हें पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। तभी अगस्त 1947 की तीसरी तारीख को उन्होंने हरदेव संधू के साथ नव-जीवन में प्रवेश किया।

सुबह की उन्हीं मीटिंग्स में मैंने यह भी जाना कि शीला संधू ने जब ‘राजकमल‘ का अधिग्रहण किया, तो डॉ. नामवर सिंह ने उस दौर में राजकमल के लिए जो किया, वह निश्चित रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण था, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि शीलाजी मूक द्रष्टा बनकर बैठी रहीं। उन्हें इस बात का अहसास था कि हिंदी का सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान चलाने की जिम्मेदारी ली है उन्होंने, तो स्वयं को उसके अनुरूप सिद्ध करना होगा और इसके लिए प्राथमिक आवश्यकता है हिंदी सीखना। वे उस समय तक टूटी-फूटी हिंदी बोल जरूर लेती थीं, पर इस भाषा का अक्षर-ज्ञान उन्हें कतई नहीं था। लेकिन वे इसके पूर्व दो-दो स्नातकोत्तर परीक्षाओं में प्रथम श्रेणी में सर्वाेच्च रहकर स्वर्ण-पदक प्राप्त कर चुकी थीं– पहले पंजाब विश्वविद्यालय से संबद्ध लाहौर कॉलेज फॉर विमेन से भूगोल की परीक्षा में और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट्रल स्कूल ऑफ एजूकेशन में भूगोल पढ़ाते हुए एम.एड. की परीक्षा में; इतना ही नहीं, जब इंडियन स्कूल फॉर इंटरनेशनल स्टडीज़ में उनका ‘चीन की शिक्षा-पद्धति पर पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति का प्रभाव’ विषय पर पीएच.डी. के लिए रजिस्ट्रेशन होने के बाद, पीकिंग (बीजिंग) में रहना और चीनी भाषा में डिप्लोमा हासिल करना जरूरी हो गया, तो उन्होंने संसार की इस कठिनतम भाषा की परीक्षा 97 प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण की थी। ऐसी मेधावी महिला के लिए हिंदी सीखना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं था और उन्होंने बहुत कम समय में ही न केवल अच्छी-ख़ासी हिंदी सीख ली बल्कि शीर्षस्थ लेखकों की पांडुलिपियाँ पढ़ने और उन पर टिप्पणी करने की योग्यता भी अर्जित कर ली। इसके अतिरिक्त वे डॉ. नामवर सिंह के साथ यात्राओं पर भी गईं, लेखकों से मिलीं– बनारस में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी से; लखनऊ में भगवतीचरण वर्मा से, अमृतलाल नागर से; इलाहाबाद में महादेवी वर्मा से, सुमित्रानंदन पंत से; पटना में बाबा नागार्जुन से, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ से, रामचारी सिंह ‘दिनकर’ से आदि-आदि। बड़ी बात यह कि डॉ. नामवर सिंह की भूमिका इन लेखकों से शीला संधू का परिचय कराने तक सीमित रही, उनके साथ संबंधों को आत्मीयता के स्तर तक विकसित करने का काम किया शीला संधू के निश्चल स्वभाव एवं पारदर्शी व्यवहार ने, जिसके परिणामस्वरूप राजकमल को श्री सुमित्रानंदन पंत, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी एवं डॉ. रामविलास शर्मा की पूर्व-प्रकाशित लगभग सब पुस्तकों के प्रकाशनाधिकार तो प्राप्त हुए ही, उनके जीवनपर्यंत उनकी हर नई कृति प्रकाशित करने का सौभाग्य भी ‘राजकमल’ को ही प्राप्त हुआ। रामविलासजी की दो चार किताबें अवश्य दूसरे प्रकाशकों के पास गईं, लेकिन यह उस समय की बात है जब वे जीवन के अंतिम दिनों में अपने चिरसंचित ज्ञान का भंडार भावी पीढ़ियों को सौंपने के लिए आतुर थे और इतनी तीव्र गति से लिख रहे थे कि ‘राजकमल’ के लिए उसके साथ सामंजस्य बैठाना कठिन होने लगा था। लगभग उसी कालखंड में ‘राजकमल प्रकाशन’ को महाकवि निराला की संपूर्ण रचनाओं के प्रकाशनाधिकार हस्तांतरित किए गए, जो निरालाजी के पौत्र ने उनके विभिन्न प्रकाशकों से लंबी कानूनी लड़ाई लड़कर वापस लिये थे। भगवतीचरण वर्मा को ‘राजकमल’ के निदेशक-मंडल में शमिल करना भी लेखकों के प्रति शीलाजी के आदर-भाव का ही सूचक था।

यहाँ मुझे बाबा नागार्जुन का एक प्रसंग याद आ रहा है। बात ‘भस्मांकुर’ के प्रकाशन से ठीक पहले की है। ‘राजकमल’ के किसी शत्रु ने बाबा के कान भर दिए कि शीला संधू किताबों की बिक्री के दो खाते रखती हैं—— एक वास्तविक और दूसरा लेखकों की रॉयल्टी का हिसाब करने के लिए, जिसमें बिक्री घटाकर दिखाई जाती है। बाबा का गुस्सा सातवें आसमान पर; उन्होंने सवेरे-सवेरे शीलाजी के घर पर फोन करके उन्हें कड़े शब्दों में फटकारा और शीलाजी जल्दी-जल्दी तैयार होकर दफ्तर जाने से पहले पहुँच गईंउनके घर पर, ‘‘बाबा, यह लो ‘राजकमल’ की चाबी; दफ्तर तब तक नहीं खुलेगा, जब तक आप किसी योग्य चार्टर्ड एकाउंटेंट से हमारे खातों की जाँच कराकर संतुष्ट नहीं हो जाते।’’

शीलाजी का यह रूप देखकर बाबा दंग रह गए। उन्होंने सोचा नहीं था कि बात इतनी दूर तक जाएगी और अंततः शमशेर के शब्दों में वही बात हो गई कि बात बोलेगी, हम नहीं।

∙

पिछले प्रसंग में मैंने जब कहा कि पल-भर में ही ‘राजकमल’ की और मेरी नियति एकमेक हो गई, तो कुछ गलत नहीं कहा था। मेरे सामने तीन ऐसे अवसर आए, जिन्हें कोई भी व्यवहारकुशल व्यक्ति हाथ से न जाने देता, लेकिन मैंने ‘राजकमल’ के लिए उन्हें ठोकर मारने में गर्व का अनुभव किया। इनमें पहला व स्वर्णिम अवसर था मॉरिशस के ‘महात्मा गाँधी विश्वविद्यालय’ में प्रकाशन विभाग के अध्यक्ष-पद का प्रस्ताव। दरअसल इस विश्वविद्याल में वैसा कोई विभाग पहले नहीं था, लेकिन वहाँ के यशस्वी कथाकार अभिमन्यु अनत, जो तत्कालीन प्रधानमंत्री सर शिवसागर रामगुलाम के बहुत निकट थे और विश्वविद्यालय में भी जिनका प्रभाव था, चाहते थे कि मॉरिशस के लेखकों के लिए उनकी पुस्तकों की प्रकाशन-व्यवस्था मॉरिशस में ही हो और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए विश्वविद्यालय में एक नया विभाग स्थापित करने की बात की गई थी। इस सिलसिले में मेरी औपचारिक अस्वीकृति के बावजूद, 1976 में मॉरिशस में आयोजित ‘द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन’ में एक प्रतिभागी की हैसियत से जब मैं वहाँ गया, तो अभिमन्यु अनत ने बातचीत के दौरान भावुक लहजे में एक वाक्य कहा था, जो आज भी मेरे कानों में गूँजता है: ‘‘मोहनजी, आप हमारा प्रस्ताव स्वीकार करते, तो हमारे देश का यह सौभाग्य होता!’’ और मैंने जवाब दिया था, ‘‘आप जो आदर मुझे दे रहे हैं, उसके लिए मैं शब्दों में आभार प्रकट नहीं कर सकता, अभिमन्युजी! लेकिन यह कहने के लिए क्षमा चाहता हूँ कि ‘राजकमल’ को अलविदा कहना मेरे लिए संभव नहीं है!’’ और इस तरह इस पहले अवसर का पटाक्षेप हुआ था।

अब दूसरे अवसर की बात। मेरे छात्र-जीवन के दोस्त और हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार गिरिराज किशोर ‘आईआईटी कानपुर’ के रजिस्ट्रार-पद पर आसीन हुए, तो उन्होंने खास तौर पर अपने इस दोस्त का ‘उद्धार’ करने के मकसद से ‘आईआईटी’ में पब्लिकेशन-ऑफीसर का पद क्रिएट करवाया और मेरी स्वीकृति के लिए इसका औपचारिक प्रस्ताव मेरे पास भेजा। मैं इसका अस्वीकृतिसूचक जवाब देने की तैयारी कर ही रहा था कि संयोग से उसी दिन गिरिराज किशोर का स्वयं दिल्ली आना हो गया और वहदिल्ली आया तो ‘राजकमल’ में उसे आना ही था; उसका तब तक का संपूर्ण लेखन ‘राजकमल’ से प्रकाशित हुआ था और शीलाजी से उसका एक आत्मीय रिश्ताक़ायम हो गया था। उसने मेरी केबिन में आकर प्रसन्न भाव से पूछा, ‘‘मेरा लैटर मिल गया तुझे?’’

‘‘हाँ, लैटर तो मिल गया गिरिराज, लेकिन…’’

मेरी बात पूरी होने से पहले ही गिरिराज बोला, ‘‘लेकिन शीलाजी तुझे छोड़ नहीं रही हैं, यही न!..’’ कहकर वह तेजी से शीलाजी की केबिन में गया और बोला, ‘‘यह क्या शीलाजी, मैं मोहन को आईआईटी में एक अच्छा अवसर दे रहा हूँ और आप हैं कि उसे रिलीव करने को तैयार नहीं…’’

‘‘मैंने उसे कहाँ रोका, गिरिराज! तुम समझते हो कि मैं उसकी तरक्की के रास्ते का रोड़ा बनूँगी?’’

उनके जवाब से आश्वस्त होकर गिरिराज मेरे पास आया और बोला, ‘‘शीलाजी तो तुझे रिलीव करने को तैयार हैं!’’

‘‘लेकिन मैं रिलीव होने को तैयार नहीं हूँ, गिरिराज! तू समझता क्यों नहीं?’’

गिरिराज उत्तेजित हो गया और जैसाकि हर पढ़ा-लिखा हिंदुस्तानी उत्तेजना में अंग्रेजी बोलता है, वैसे ही वह भी अंग्रेज़ी में बोला, **You are wedded to Rajkamal, I spit on you!** और फिर वाक़ई मेरी कुरसी की बगल में थूककर वह बाहर निकल गया।

दूसरे अवसर का पटाक्षेप।

और अब तीसरे अवसर की बात। एक दिन शाम के समय लगभग पाँच बजे .’राजपाल एंड संस.’ के प्रमुख कार्याधिकारी ईश्वरचंद्र का फोन आया, ‘‘आपसे मिलना है मोहनजी, बहुत ज़रूरी!’’

‘‘लेकिन ईश्वरचंद्रजी, आज तो मैं बहुत व्यस्त हूँ; समय निकाल पाना संभव नहीं होगा।’’

‘‘समय तो निकालना पड़ेगा, मोहनजी! बहुत आवश्यक मामला है और आपके हित का है।’’

आखिरकार मुझे कहना पड़ा, ‘‘आप इतना आग्रह कर रहे हैं, तो अवश्य आऊँगा। बताइए, कब और कहाँ मिलना है।’’

‘‘सात बजे, कार्लटन होटल के रेस्ट्राँ में…कश्मीरी गेट के मुख्य बाज़ार में ‘आत्माराम एंड संस’ के शोरूम से सटा हुआ है ये होटल!’’

मैं पूर्व-निर्धारित समय पर रेस्ट्राँ में पहुँचा, तो सामने की टेबुल पर ईश्वरचंद्र बैठे दिखाई दिए। उन्होंने दूर से ही हाथ उठाकर मेरा स्वागत किया और मैं जाकर उनके सामनेवाली कुरसी पर बैठ गया;कुशल-क्षेम की पारस्परिक औपचारिकता के बाद मैंने सीधा सवाल किया, ‘‘हाँ ईश्वरचंद्रजी, पहले जरूरी बात कर लें। बताइए, आपने किस काम के लिए बुलाया है मुझे?’’

ईश्वरचंद्र तो तैयार ही थे। उन्होंने अपना ब्रीफकेस खोलकर साफ-सुथरे ढंग से हिंदी में टाइप किया हुआ एक पेपर निकाला और बिना कुछ कहे मेरे सामने रख दिया।

पेपर पर एक उड़ती-सी नज़र डालते हुए मैंने पूछा, ‘‘क्या है यह?’’

ईश्वरचंद्र बहुत आह्लादित स्वर में बोले, ‘‘आपके लिए अप्वॉइंटमेंट लेटर है। विश्वनाथजी चाहते हैं कि आप ‘राजपाल एंड संस’में आकर यहाँ का प्रकाशन विभाग सँभालें!’’

‘‘बिना यह जाने कि मैं आना चाहता है या नहीं?’’

‘‘ओफ्फोह मोहनजी, आप इसे पढ़िए तो सही, देखिए कि विश्वनाथजी ने इसमें वेतन का कॉलम ब्लैंकछोड़ा है… आप अपने लिए जो उचित समझते हैं, भर लें।’’

‘‘मुझे राजकमल में जो वेतन मिल रहा है, उसका तीन गुना भी आप इसमें भर दें, तो मैं नहीं आऊँगा।’’

‘‘क्यों नहीं आएँगे? इतना बड़ा अवसर मिल रहा है आपको!’’

‘‘बड़े अवसर का मतलब क्या सिर्फ अधिक पैसा होता है ईश्वरचंद्रजी?’’

‘‘और नहीं तो क्या!’’

‘‘तो सुनिए ईश्वरचंद्रजी, आप मेरे लिए यह अप्वॉइंटमेंट लेटर विश्वनाथजी की इच्छा से न सिर्फ टाइप कराकर बल्कि उनके दस्तखत कराकर भी लाए हैं, लेकिन मैं आपके लिए शीलाजी की तरफ से वैसा ही अप्वॉइंटमेंट लेटर, जिसमें आप अपने मनोनुकूल वेतन स्वयं भर सकते हैं, अभी और यहीं लिखकर देता हूँ– आप आइए ‘राजकमल’ में।’’

मेरी तरफ से ऐसे प्रत्युत्तर की अपेक्षा ईश्वरचंद्र को नहीं थी; लड़खड़ाते हुए बोले, ’’नहीं मोहनजी मैं नहीं आ सकता!’’

‘‘क्यों नहीं आ सकते? आप जिन शर्तों का वास्ता देकर मुझे ‘राजकमल’ छोड़ने के लिए कह रहे हैं, उन्हीं शर्तों पर आपको एक ऑफर मिल रही है तो आप.’राजपाल’ को क्यों नहीं छोड़ सकते?’’

‘‘नहीं, मेरी बात और है…’’

‘‘आपकी बात और है, तो मेरी बात भी और है ईश्वरचंद्रजी!’’ कहकर मैंने हाथ जोड़ दिए, “अब आज्ञा दें, फिर मिलेंगे।’’

∙

‘राजकमल’ की और अपनी नियति एकमेक होने का वृत्तांत सुनाने के मोह में बातों की क्रमबद्धता भंग हो गईं, तो इसके टूटे तार पुनः जोड़ने के लिए मुझे 1971 के उस कालखंड में लौटना होगा जब तीन महीने का नोटिस पीरियड समाप्त होने के बाद ‘राजकमल’ में मेरी नई पारी शुरू हुई थी। शीलाजी की छोटी बेटी तानी उस समय आठवीं क्लास में पढ़ रही थी और आठवीं क्लास में तब संस्कृत एक अनिवार्य विषय हुआ करता था, तो एक दिन शीलाजी बोलीं, ‘‘मोहनजी, तानी संस्कृत में कमजोर है और वार्षिक परीक्षाएँ सिर पर आ गई हैं; क्या आप उसे संस्कृत पढ़ाएँगे?’’

पढ़ाना वैसे ही मेरी कमज़ोरी थी, ऊपर से शीलाजी का आग्रह! मना भला कैसे करता। अगले दिन सुबह ऑफिस पहुँचा ही था कि शीलाजी की बड़ी बेटी ज़ोया मुझे लेने के लिए आ गई। फिर तो शीलाजी ने मुझे‘राजकमल’ से ले जाने और ट्यूशन खत्म होने के बाद वापिस ‘राजकमल’ पहुँचाने के लिए अपना ड्राइवर तैनात कर दिया था। यह सिलसिला तीन महीने तक चला और सुखद बात यह रही कि तानी संस्कृत में पास हो गई।

तानी को संस्कृत पढ़ाने के दौरान शीलाजी के साथ आत्मीयता का ऐसा स्तर कायम हुआ कि दो-एक महीने बाद बच्चों के समर वैकेशंस शुरू होने पर उनका एक महीने के लिए सपरिवार अमेरिका-भ्रमण का कार्यक्रम बना तो बोलीं, ‘‘मोहनजी, मैं कोठी को नौकरों के भरोसे छोड़ने का रिस्क नहीं लेना चाहती। आप ऐसा करो कि उर्मिला और दोनों बेटियों के साथ एक महीने के लिए यहीं शिफ्ट हो जाओ।’’ और मैं बिना किसी ना-नुकुर के शिफ्ट हो गया था।

कोलकाता से दिल्ली आकर मैंने करोलबाग में आर्यसमाज रोड पर ‘सतभ्रावाँ गर्ल्स स्कूल’ के सामने एक छोटा-सा फ्लैट किराए पर लिया था और दो साल से वहीं रह रहा था। शीलाजी अमेरिका से लौटीं, तो इस बात के लिए बजिद कि मैं लाजपतनगर में उनके आसपास ही कोई जगह देखूँ, तो थोड़ी दौड़धूप के बाद मुझे एक कमरे का एक बहुत खूबसूरत फ्लैट मिल गया, जिसके साथ एक लंबी-चैड़ी ओपन टैरेस थी और सामने की तरफ एक कमरे के आकार का कवर्ड बालकनी। यह जगह शीलाजी की कोठी से बमुश्किल आधा किलोमीटर के फासले पर थी। नतीजतन संबंधों में पारस्परिकता बढ़ी और शीलाजी व्यक्तिगत स्तर पर मुझे और मेरे परिवार को बहुत चाहने लगीं। उन्हें कढ़ी-चावल खाने का बहुत शौक था और मेरी पत्नी कढ़ी बहुत अच्छी बनाती है, तो वे रविवार के दिन अक्सर लंच पर मेरे घर आ जातीं कढ़ी-चावल खाने और मजे की बात यह कि उनके जैसी आधुनिक महिला कढ़ी-चावल खाने में चम्मच का नहीं, उँगलियों का इस्तेमाल करतीं। वे कहा करती थीं कि इसका मज़ा तो उँगलियों से खाने में ही है।

∙

शीलाजी अपनी गाड़ी आम तौर पर ख़ुद ही ड्राइव किया करती थीं। उनका बेटा संजय बाराखंभा रोड पर अवस्थित  ‘मॉडर्न स्कूल’ में पढ़ता था और स्कूल का टाइम था सुबह आठ बजे से, तो वे उसे स्कूल में छोड़ती हुई ‘राजकमल’ चली जातीं। मैं उनके घर के पास रहने लगा, तो उन्होंने मुझे भी साथ ले जाना शुरू कर दिया—सुबह ठीक साढ़े-सात बजे मेरे घर के सामने उनकी गाड़ी का हॉर्न गूँजता और मैं तेज़ी से सीढ़ियाँ फलाँगता हुआ जा बैठता आगे की सीट पर, संजय पीछे बैठा हुआ होता। जिस दिन स्कूल की छुट्टी होती, उस दिन शीलाजी साढ़े-सात के बजाय आठ बजे आतीं मुझे पिकअप करने। यह सिलसिला पूरे दो साल तक चला।

उन्हीं दिनों का एक रोचक प्रसंग है। शीलाजी ने मेरे लिए मोटरसाइकिल बुक कराई थी। लेकिन हमारे एक नज़दीकी परिवार का जवान बेटा कुछ दिन पहले ही मोटरसाइकिल से दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और अपने माता-पिता को बिलखता छोड़ इस दुनिया से कूच कर गया था। मै इस दुर्घटना को अपनी मोटरसाइकिल से जोड़कर नहीं देख रहा था, लेकिन मेरी पत्नी उर्मिला के मन पर इसका गहरा असर था, इसलिए जब उसने सुना कि मुझे मोटरसाइकिल दिलवाई जा रही है, तो वो सहम गई, लेकिन अपने मनोभावों को उसने जाहिर नहीं होने दिया और एक दिन शाम के लगभग आठ बजे कहने लगी कि चलो, शीलाजी के घर चलते हैं, उनसे मिलने का मन हो रहा है। मैंने उनके घर में फोन किया, तो पता चला कि वे घर में ही हैं। मैं उर्मिला को लेकर’ वहाँ पहुँचा, तो उर्मिला ने उनके पास बैठते ही कहा, ’’शीलाजी, मैंने आज तक आपसे कुछ नहीं माँगा, लेकिन आज माँगने आई हूँ….’’

‘‘वाकई उर्मिला, आज पहली बार तुम्हारे मुँह से यह बात सुनी है। बताओ, मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकती हूँ?’’

‘‘ज्यादा कुछ नहीं, बस इतना ही कि इन्हें मोटरसाइकिल न दिलवाओ!’’

शीलाजी ने आश्वस्ति की साँस ली, ‘‘बस!!! मैं तो घबरा रही थी कि तुम्हारी माँग पूरी कर भी पाऊँगी या नहीं।’’ फिर वे मेरी तरफ देखकर मुस्कुरार्इं, और बोलीं, ‘‘लो मोहन, तुम्हारी बाइक तो गई गताल खाते में!’’

आखिर बीच का रास्ता अपनाते हुए, हीरो मैजेस्टिक मोपेड पर फैसला हुआ, जिसे एक साल चलाने के बाद मुझे मिला विजय स्कूटर; दो साल मैंने उस पर सवारी गाँठी। अंततः शीलाजी ने मुझे फिएट का प्रीमियर पद्मिनी मॉडल दिलवाया, जो पंद्रह-सोलह साल तक मेरे पास रहा, जब तक मेरे अंदर ड्राइव करने की क्षमता रही।

 

अंतर्विरोधों से साक्षात्कार-2

 

एक पुरानी कहावत है कि ‘चूल्हे पर काठ की हाँडी एक बार ही चढ़ाई जा सकती है’ यानी एक बार चढ़ाने के बाद ही वह जलकर कोयला बन जाएगी और दुबारा चढ़ाने लायक रहेगी ही नहीं, लेकिन एक और कहावत यह भी है कि लीक-लीक कायर चलैं, लीकै-लीक कपूत/लीक छोड़ तीनों चलैं, सायर सिंह सपूत; और कहना न होगा कि शीलाजी ने दूसरी कहावत को चरितार्थ करते हुए काठ की एक ही हाँडी तीन बार चूल्हे पर चढ़ाकर दिखा दी; लेकिन क्योंकि इसका उत्तरपक्ष मैं स्वयं था, तो असल में यह उनका नहीं बल्कि मेरी बेवकूफ़ी का करिश्मा था कि मैंने उन्हें काठ की एक ही हाँडी को तीन बार चूल्हे पर चढ़ाने का मौका दिया। काठ की हाँडी अर्थात् ’राजकमल प्रकाशन’ और उसे चूल्हे पर चढ़ाना यानी मेरे साथ उसका सौदा करना। शीलाजी ने मेरे साथ ’राजकमल’ का पहली बार सौदा किया, तो उसे यह कहकर तोड़ा था कि ‘चिनार एक्सपोर्ट्स’ के कंपनी-सेक्रेटरी ‘राजकमल’ को बेचने का कड़ा विरोध कर रहे हैं, और क्योंकि ‘राजकमल’ के नब्बे प्रतिशत शेयरों में पूँजी ‘चिनार’ की लगी है तो उनकी अवज्ञाा नहीं की जा सकती। चारेक साल बाद मैंने ‘राजकमल’ की नौकरी से ऊबकर इस्तीफा दिया, तो शीलाजी ने इस्तीफे का कारण पूछा और मैंने साफ कह दिया कि ‘‘बहुत कर ली नौकरी, अब अपना ही प्रकाशन शुरू करूँगा।’’

इस पर शीलाजी ने कहा, ‘‘राजकमल भी तुम्हारा ही है; इसी को ले लो और करो अपने मन के मुताबिक प्रकाशन।’’ राशि उन्होंने शायद पंद्रह लाख माँगी थी, जिसे मैंने तुरंत स्वीकार करके इस बार उन्हें एक लाख अग्रिम भी दिया था। मैं आश्वस्त भाव से काम कर रहा था कि एक दिन अचानक उन्होंने कहा, ‘‘तुम अक्सर पेपरबैक्स की बात करते रहे हो, तो क्यों न हम इस योजना पर काम शुरू करें! इस समय स्थितियाँ भी अनुकूल हैं।’’ स्थितियाँ भी अनुकूल हैं यानी इसके लिए संधू साहब ‘चिनार’ से फंड उपलब्ध कराने को तैयार हैं …मुझे ‘राजकमल’ की हर महत्वपूर्ण प्रकाशन-योजना पर काम शुरू करने से पहले इस तरह का जुमला सुनने की आदत-सी हो गई थी और इसीलिए मैं नहीं समझ पाया कि इस बार यह शेर का शिकार करने के लिए मचान से कुछ फासले पर गाय बाँधी जा रही है। मतलब साफ है कि मैं पेपरबैक्स की योजना पर काम करने की धुन में अपना वास्तविक लक्ष्य भूल गया और वक्त मुट्ठी के रेत की तरह रिसता रहा। इसका अहसास मुझे तब हुआ, जब शीलाजी ने मेरे अग्रिम की मूल राशि पर 12 प्रतिशत की वार्षिक दर से ब्याज जोड़कर इसका चैक मुझे थमाया और कहा कि ‘‘मोहनजी, मुझे लगता है कि अब यह बेमानी हो गया है। क्या तुम्हें इसकी कोई जरूरत महसूस होती है?’’

मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था सिवाय चुप रहने के और इस तरह दूसरे प्रसंग का भी स्वयमेव पटाक्षेप हो गया।

अब आएँ इस संदर्भ के तीसरे प्रसंग पर। बात 1986 के अंत की या 1987 के शुरू की है। मुझे पता लगा कि ‘राधाकृष्ण प्रकाशन’ के तत्कालीन स्वामी अरविंदकुमार की ‘नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया’ के निदेशक पद पर नियुक्ति हो गई है, अतः वे ‘राधाकृष्ण प्रकाशन’ को बेचना चाहते हैं। मैंने अरविंदकुमार से संपर्क स्थापित किया और 7,50,000 रुपयों पर पारस्परिक सहमति बन गई। यह रकम जुटाने के लिए मैंने तत्काल अपना पांडवनगर का मकान बेचा, जिसका सौदा 6 लाख रुपए में तय हुआ और सौदा तय होते ही मुझे बतौर अग्रिम 1 लाख 90 हज़ार मिले, जिन्हें मैं ब्रीफकेस भरकर अरविंदकुमार को देने के लिए लाया था। अरविंदकुमार के साथ मिलने का टाइम तय हुआ था शाम को लगभग 7 बजे ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ के ऑफिस में ही। लेकिन शीलाजी एक सप्ताह बाद ऑक्सफोर्ड जा रही थीं, जहाँ उनके दामाद राजीव भार्गव एक फैलोशिप के अधीन शोधकार्य कर रहे थे और उनकी पत्नी (शीलाजी की बेटी) तानी भार्गव भी वहीं थीं। शीलाजी शायद बेटी के पहले प्रसव के सिलसिले में जा रही थीं तीन महीने के लिए, तो मेरे मन में विचार आया कि मुझे तो तीन महीने से पहले ही ‘राधाकृण’ में जाकर वहाँ की व्यवस्था देखनी होगी; ऐसी स्थिति में शीलाजी को अभी बता देना चाहिए ताकि वे अपने लौटने तक के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था कर लें और मैंने जाकर उन्हें सबकुछ साफ-साफ बता दिया। सुनकर वे गंभीर हो गईं और थोड़ी देर सोचते रहने के बाद बोलीं, ‘‘मैं काफी समय से महसूस कर रही हूँ कि ’राजकमल’ को चलाते रहने की शक्ति अब मेरे अंदर नहीं रह गई है, अतः किसी उपयुक्त व्यक्ति के हाथों में सौंपकर इससे मुक्त हो जाना चाहती हूँ। तुमने सोलह-सत्रह वर्षों से इसके साथ जुड़े रहकर जिस समर्पित भाव से अपनी जिम्मेदारियाँ  निभाई हैं, उसे देखते हुए इस नई जिम्मेदारी के लिए भी तुम उपयुक्त हो। मुझे पैसे का मोह नहीं है, तुम जितनी रकम ’राधाकृष्ण प्रकाशन’ के लिए दे रहे हो, उसमें दो लाख रुपए और जोड़कर ‘राजकमल प्रकाशन’ ही ले लो। मुझे अपने शेयरों की लागत मात्र चाहिए, इससे ज़़्यादा कुछ नहीं।’’

मैं जानता था कि ‘राजकमल प्रकाशन’ में इस समय संधू परिवार के शेयरों की Face Valueइतनी ही थी, तो मेरे मन में एक विश्वास पैदा हो गया कि उनके प्रस्ताव में कोई छल-कपट नहीं है। मैं लालच का शिकार हो गया कि साढ़े-नौ लाख रुपए में ‘राजकमल’ मिल रहा है। पिछले दो अनुभवों को भूलकर मैंने बिना कुछ सोचे-समझे उनके प्रस्ताव पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी और मकान बेचने के सौदे में बतौर पेशगी मिले जो 1.90,000‘रुपए मैं अरविंदकुमार को देने जा रहा था, वे उन्हें सौंप दिए। अरविंदकुमार को फोन करके कह दिया कि एडवांस देने के लिए रुपयों की व्यवस्था नहीं हो पाई है, उसमें कुछ वक्त लगेगा। शीलाजी ने कहा, ‘‘तुम जानते हो कि मैं एक सप्ताह बाद ऑक्सफोर्ड जा रही हूँ; इतने कम समय में एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के हस्तांतरण की कानूनी औपचारिकताएँ पूरी नहीं की जा सकतीं। इसलिए फिलहाल मैं तुम्हारी पेशगी की यह रकम ‘राजकमल’ के खाते में लोन की शक्ल में जमा करा देती हूँ।’’ फिर कुछ पल ठहरकर बोलीं, ‘और हाँ, दो जरूरी बातें। पहली यह कि मेरे लौटने तक तुम किसी के सामने ‘राजकमल’ खरीदने की चर्चा नहीं करोगे और दूसरी यह कि ‘राजकमल’ को बेचकर भी मैं जीवनपर्यंत इसके निदेशक-मंडल की अध्यक्ष रहूँगी।’’ मैंने उनकी ये दोनों शर्तें सहज भाव से स्वीकार कर लीं, क्योंकि स्वयं को मालिक जताना मेरा उद्देश्य नहीं था; मेरे लिए तो यह सब मनोनुकूल काम करने की भरपूर आजादी का दूसरा नाम था।

बहरहाल, शीला संधू ऑक्सफोर्ड चली गईं और मेरी तरफ से कोई ठोस जवाब न मिलने पर अरविंदकुमार ने अनुमान लगा लिया कि शीला संधू ने मोहन गुप्त को उलझाए रखने के लिए अवश्य ही कोई दुर्भेद्य जाल फेंका है। बस, इसी अनुमान को आधार बनाकर उन्होंने किसी से कह दिया कि मोहन गुप्त ने ‘राजकमल प्रकाशन’ खरीद लिया है। जिस व्यक्ति से यह बात कही गई थी. उसने किसी दूसरे से कही। उस दूसरे ने किसी तीसरे से, और इस तरह बात फैल गई। नतीजा यह कि तीन महीने बाद शीला संधू ऑक्सफ़ोर्ड से लौटीं, तो एक लेखक ने उन्हें फोन कर दिया, ‘‘शीलाजी, सुना है कि आपने ‘राजकमल’ मोहन गुप्त को बेच दिया? क्या यह सच है?’’ शीलाजी ने फ़ौरन मुझे तलब किया और कहा, ‘‘मैंने तुम्हें सावधान किया था कि ’राजकमल’ खरीदने की चर्चा किसी से मत करना, मैं अपने तरीके से लेखकों को समझाऊँगी, लेकिन तुमने सब गुड़ गोबर कर दिया। मैं महसूस कर रही हूँ कि लेखकों में इस बात को लेकर काफी नाराज़गी है। इन हालात में तुम ‘राजकमल’ को नहीं चला पाओगे, इसलिए अब यह डील तुरंत फाइनल नहीं की जा सकती। हमें हालात सुधरने तक इंतज़ार करना होगा।’’

उनके इस वक्तव्य से मैं फौरी तौर पर निराश अवश्य हुआ, लेकिन इसके पीछे छिपीउनकी मंशा को नहीं भाँप सका। उसका खुलासा तब हुआ, जब ‘राधाकृष्ण प्रकाशन’ का स्वामित्व अशोक महेश्वरी के हाथों में चला गया। बात साफ़ हो गई कि शीलाजी ने मुझे 9.50,000 रुपए में ‘राजकमल’ देने का प्रस्ताव ईमानदारी  से नहीं बल्कि इस उद्देश्य से किया था कि मैं ‘राधाकृष्ण प्रकाशन’ खरीदने से वंचित हो जाऊँ तथा ‘राजकमल’ में ही बना रहकर पूर्ववत् सारा काम सँभालता रहूँ ताकि उन्हें ‘राजकमल’ का उनके मन-मुताबिक मूल्य अदा करनेवाला कोई ‘उपयुक्त’ ग्राहक खोजने के लिए पर्याप्त समय मिल सके, और हुआ भी यही। उन्होंने यह सोचकर कि मोहन गुप्त के सामने अब ’राजकमल’ में बने रहने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है, दूसरी पार्टियों से निगोशिएट करना शुरू कर दिया और मजा यह कि दिल्ली से बाहर की तीन पार्टियों के साथ बात करने के लिए तो भेजा भी मुझे ही। ये तीन पार्टियाँ थीं—— हिंदी की जानी-मानी कथाकार प्रभा खेतान, ‘विश्वविद्यालय प्रकाशन’, वाराणसी के स्वामी पुरुषोत्तमदास मोदी और ‘पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्राइवेट लिमिटेड, जयपुर’ के मैनेजिंग डायरेक्टर रामपाल।

इन तीनों में प्रभा खेतान एक तरफ हिंदी की प्रतिष्ठित कथाकार एवं विश्व-साहित्य की गंभीर अध्येता थीं, तो दूसरी तरफ उद्योग-वाणिज्य के क्षेत्र में भी उनका सुनाम था। उन्होंने मात्र 24 वर्ष की आयु में महिलाओं की स्वास्थ्य-रक्षा के निमित्त Figurett नामक संस्था की और 34 वर्ष की आयु में एक लैदर एक्सपोर्ट कंपनी की स्थापना की थी, जिनका संचालन वे जीवनपर्यंत करती रहीं। वे अकेली ऐसी महिला थीं, जिन्हें ‘कलकत्ता चेंबर ऑफ कॉमर्स’ की प्रेजीडेंट रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनकी इन तमाम विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि वे ‘राजकमल’ के साहित्यिक और व्यावसायिक, दोनों पक्षों को पूरी दक्षता के साथ सँभाल सकती थीं। लेकिन वे 20 लाख से अधिक देने को तैयार नहीं थीं, जबकि शीला संधू 30 लाख पर अड़ी रहीं। इन दोनों राशियों के बीच कहीं कोई समझौता शायद हो भी जाता, लेकिन शीलाजी ने यहाँ भी तीन शर्तें लगा दीं– (1) कंपनी के हस्तांतरण की तमाम कानूनी प्रक्रियाएँ विधिवत संपन्न हो जाने और पूरा भुगतान कर देने के बावजूद आप इस बात को उजागर नहीं करेंगी कि आपने ‘राजकमल’ ख़रीद लिया है; (2) मैं ‘राजकमल’ के निदेशक-मंडल की आजीवन अध्यक्ष रहूँगी तथा (3) ‘राजकमल’ का प्रकाशन-विभाग मेरे अधीन रहेगा।

ये शर्तें सुनकर प्रभा खेतान उखड़ गर्इं और वार्ता पर तत्काल पूर्ण विराम लग गया। पुरुषोत्तमदास मोदी तो 15 लाख से आगे बढ़े ही नहीं, तो शर्तों की नौबत भी नहीं आई। रामपाल बेशक 30 लाख देने को तैयार हो गए थे और बतौर पेशगी 5 लाख उन्होंने दे भी दिए थे, लेकिन पेशगी की रकम लेने के बाद उनके सामने भी उपर्युक्त शर्तें रखी गईं, जो उन्हें मंजूर नहीं हो सकीं। नतीजतन उनके साथ भी डील ने मँझधार में ही दम तोड़ दिया। शीला संधू ने उनकी पेशगी की रकम 12 प्रतिशत की वार्षिक दर से ब्याज जोड़कर काफ़ी समय बाद लौटाई।

इन पार्टियों के साथ वार्ता भंग हो जाने के बाद शीलाजी ने समझ लिया कि ‘राजकमल’ को बेचने की चर्चा से मैं अव्यवस्थित होता हूँ तो मुझे बहलाने के लिए बोलीं, ’’मोहन, मुझे लगने लगा है कि मैं भी ‘राजकमल’ के बिना नहीं रह सकती, तो मैंने अब ‘राजकमल’ को न बेचने का फ़ैसला कर लिया है और, न सही बड़े पैमाने पर, छोटे पैमाने पर हम दोनों मिलकर चलाएँगे इसे।’’

मुझे उनकी बात पर विश्वास न’हीं हो रहा था। मैंने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, तो मुझे ख़ामोश देखकर वे बोलीं, ‘‘हाँ-हाँ, मैं सही कह रही हूँ, मेरा यकीन करो।’’

मैंने अपने मन में सोचा कि यकीन तो बहुत बार किया, लेकिन हासिल क्या हुआ!

गाड़ी जैसे-तैसे खिसकने लगी; सतह पर पूरी शांति थी, लेकिन मुझे महसूस हो रहा था कि यह तूफान से पहले की शांति है। मैं अनिश्चय के भँवरमें फँसकर डाँवाडोल हो रहा था, जिससे त्राण पाने के लिए मैंने एक बार फिर अपना ‘नपुंसक’ इस्तीफा शीलाजी को सौंपा और शीलाजी ने फिर वही अपना चिरपरिचित सवाल दोहराया, ‘‘क्या करना चाहते हो ‘राजकमल’ से अलग होकर?’’

‘‘मैंने निश्चय कर लिया है कि अब अपना ही प्रकाशन करूँगा! मेरा यह सपना मुझे चैन से नहीं बैठने दे रहा; उठते-बैठते, सोते-जागते कचोटता रहता है!’’

लेकिन मेरे नया प्रकाशन-संस्थान शुरू करने के विचार से शीलाजी अव्यवस्थित हो गईं। उन्होंने कहा, ‘‘नया प्रकाशन शुरू करने का मतलब तो यह होगा कि तुम ’राजकमल’ के लेखकों को अपने पक्ष में करोगे?’’ और उनका यह अप्रत्याशित प्रश्न सुनकर मेरे मुँह से अनायास निकल गया, ‘‘नहीं, मैं प्रकाशन की जो दुनिया बनाऊँगा, वह आपकी दुनिया से अलग होगी। आप मुख्यतः मौलिक हिंदी-लेखन प्रकाशित करती हैं, मैं मुख्यतः हिंदीतर भारतीय भाषाओं की और विश्व साहित्य की चुनिंदा कृतियों के अनुवाद प्रकाशित करूँगा और साथ में सामाजार्थिक व राजनीतिक विषयों पर वैचारिक पुस्तकें।’’

मेरा यह जवाब सुनकर शीलाजी ने कहा, ’’अगर ऐसा है तो ‘राजकमल’ के और तुम्हारे नए प्रकाशन के हितों में कोई टकराव नहीं रह जाता। तुम ‘राजकमल’ के ऑफिस में बैठकर इसका काम भी देखो और अपने प्रकाशन का काम भी करो। ‘राजकमल’ का प्रोडक्शन वैसे ही पिछले दिनों में काफी कम हो गया है। ऐसी हालत में तुम्हारे लिए दोनों प्रकाशनों का एक साथ काम सँभालना मुश्किल नहीं होगा।’’

और, इस तरह ‘राजकमल’ के ऑफिस में ही नए प्रकाशन की बुनियाद रखी गई, जिसका लक्ष्य उपर्युक्त बातचीत के दौरान अकस्मात निर्धारित हो गया था, तो उसके अनुरूप इसका नामकरण किया गया ’सारांश प्रकाशन’—— सारांश अर्थात जो कुछ हमें विरासत में प्राप्त है, उसका श्रेष्ठ संचयन।लेकिन उसके बाद जो हुआ, उसने शीलाजी के और मेरे लगभग चैबीस साल से बनते-बिगड़ते रिश्तों की खोखली दीवार को आखिरी धक्का दे दिया। शीलाजी ने कहा था कि ‘‘ ‘राजकमल’ का प्रोडक्शन वैसे ही पिछले दिनों में काफी कम हो गया है; ऐसे हालात में तुम्हारे लिए दोनों प्रकाशनों का एक साथ काम सँभालना मुश्किल नहीं होगा।’’ मगर जिन हालात का शीलाजी ने ज़िक्र किया था, उन्हें आमूल बदल डालने का पुण्य कार्य भी शीलाजी के हाथों ही संपन्न हुआ। ‘राजकमल’ और ‘सारांश’ की जुगलबंदी शुरू ही हुई थी कि संधू साहब ने उन्हें ‘राजकमल’ के लिए चिरपरिचित ‘अनुकूल अवसर’ उपलब्ध करा दिए। नतीजतन हर सप्ताह मुझे ‘राजकमल’ की कोई-न-कोई ‘महत्वपूर्ण’ प्रकाशन-योजना कार्यान्वित करने का दायित्व सौंपा जाता और मेरे प्रतिदिन दस से बारह घंटे इन दायित्वों का निर्वाह करने में लग जाते। मेरे साथ यह सब एक सोची-समझी साजिश के तहत किया गया था—— उद्देश्य था कि मैं अपने-आपको ‘राजकमल’ की चमक-दमक बनाए रखने में खपाता रहूँ, ताकि वे जिन लोगों के साथ गुपचुप तरीके से सौदा कर रही हैं, उन्हें यह न लगे कि ‘राजकमल’ तो अब एक डूबती नौका है। इन स्थितियों में मैं ‘सारांश’ की उन चार किताबों का काम बिल्कुल नहीं देख पाया, जो साल-भर पहले प्रेस में दी गई थीं और अब तक इनमें कोई प्रगति नहीं हुई थी। यह बात मेरे लिए बर्दाश्त के बाहर थी, अतः 1 जुलाई 1994 को इस्तीफा देकर मैंने शीलाजी को जता दिया कि 31 जुलाई आखिरी तारीख़ है; उस दिन अगर मेरा हिसाब न हुआ, तो मैं अगले दिन से बिना हिसाब लिये ही ‘राजकमल’ में आना बंद कर दूँगा। लेकिन शीलाजी ने इस बार मेरा इस्तीफा स्वीकार करते हुए, मेरे सामने एक प्रस्ताव रखा—‘‘तुम स्वतंत्र होकर ‘सारांश’ का काम देखो, लेकिन ‘राजकमल’ के एडवाइजर की भूमिका तो निभानी ही पड़ेगी, जिसके लिए तुम्हें यहाँ हर रोज़ नहीं बल्कि हफ्ते में एक दिन आना होगा और बदले में मिलेगा वही वेतन, जो इस समय मिल रहा है, अलबत्ता इसके साथ जुड़े अन्य लाभ नहीं मिलेंगे।’’ मैंने उनका यह प्रस्ताव स्वीकार करके मुख्यतः ‘सारांश’ की किताबों पर ध्यान केंद्रित किया, तो साल भर से लटकी वे किताबें पंद्रह दिन में ही तैयार होने की स्थिति में आ गईं। वे किताबें थीं——

  1. उर्दू ग़ज़ल को नया रूप देनेवाले अग्रणी शायर नासिर काज़मी की ‘ध्यान यात्रा’ शीर्षक से प्रायः संपूर्ण काव्य-कृतियाँ एक जिल्द में। साथ ही, नासिर के व्यक्तित्व को उजागर करनेवाले संस्मरण व साक्षात्कार। संक्षेप में, नासिर और उनकी शायरी पर एक मुकम्मल किताब;
  2. साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन को जन्म देनेवाले रचनाकारों में अग्रणी सज्जाद ज़हीर का ‘रोशनी का सफ़र’ शीर्षक से संपूर्ण कथा साहित्य यानी ‘लंदन की एक रात’ नामक उपन्यास और पाँच कहानियाँ एक जिल्द में। साथ ही, उनके व्यक्तित्व से साक्षात्कार कराते दो संस्मरण;
  3. उर्दू के मूर्धन्य कथाकार जोगेंद्र पॉल का उपन्यास ‘बयानात’, जिसमें विज्ञान, कला और जीवन के पारस्परिक संबंधों की प्रतीकात्मक कहानी है; और
  4. अफ्रीकी साहित्य को विश्व-साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान दिलानेवाले अफ्रीकी महाद्वीप के गिने-चुने लेखकों में अग्रणी, प्रख्यात उपन्यासकार-नाटककार न्गुगी वा थ्योंगो के विचारोत्तेजक निबंधों का संकलन‘भाषा संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता’।

शीलाजी ने ‘सारांश प्रकाशन’ के पहले सैट की यह रूपरेखा देखकर प्रस्ताव रखा कि तुम अपनी किताबों के वितरण की ज़िम्मेदारी राजकमल को सौंप दो, और बिक्री के जंजाल से मुक्त रहकर अच्छी किताबें प्रोड्यूस करने पर ध्यान केंद्रित करो, तो बेहतर परिणाम हासिल किए जा सकते हैं। मुझे उनका यह प्रस्ताव सद्भावनापूर्ण लगा और मैंने उनके साथ जैसा उन्होंने कहा वैसा एक संक्षिप्त-सा अनुबंध कर लिया, जिसकी आड़ लेकर उन्होंने अगस्त 1994 के ’प्रकाशन समाचार’ में अपने संपादकीय में लिखा——

‘‘एक समय था कि जब हिंदी में भारतीय और विश्व साहित्य के अच्छे अनुवाद बड़ी संख्या में प्रकाशित होते थे और हिंदी के वरिष्ठ लेखक जरूरी काम समझकर अनुवाद करते थे। इधर कई दशकों से इस प्रवृत्ति में कमी आई है। ऐसा नहीं है कि अनुवाद किए नहीं जाते या प्रकाशित नहीं होते; आज भी यदाकदा बहुत अच्छी किताबों के अच्छे अनुवाद आते रहते हैं, लेकिन यह प्रक्रिया एक क्रमबद्ध प्रवृत्ति नहीं बन पा रही है। कोई एक प्रकाशक ऐसा नहीं है जो अनुवादों के प्रकाशन के लिए जाना जाता हो, हिंदीतर भाषाओं की किसी भी पुस्तक का हिंदी-अनुवाद खोजते समय जिसका नाम याद आए। लेकिन ‘स्पेशलाइज़ेशन’ के इस युग में ऐसा होना जरूरी है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए एक नए प्रकाशन—— ‘सारांश’ की शुरुआत की गई है, जो ’राजकमल’ का सहयोगी प्रकाशन है….’’

नहीं, ‘राजकमल’ का सहयोगी प्रकाशन नहीं था ‘सारांश’। उसने अपनी मात्र बिक्री-व्यवस्था ‘राजकमल’ को सौंपी थी।फिर भीउस समय उनके इस वक्तव्य को ‘सारांश’ के प्रति उनकी सद्भावना समझा गया, लेकिन उपर्युक्त चार किताबों का सैट बाज़ार में आने के कुछ समय बाद ही उनके ‘तथाकथित अनुबंध’ और उनकी ‘सद्भावना’ की वास्तविकता उजागर होने लगी। मैं उनके चक्रव्यूह में फँस चुका था, जिससे मुक्त होने के लिए मुझे 19 जनवरी 1995 को ही ’सारांश प्रकाशन’ का प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के रूप में पंजीकरण कराना पड़ा, ताकि वैधानिक दृष्टि से ‘सारांश प्रकाशन’ के साथ किया गया अनुबंध ‘सारांश प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड’ के बैनर से प्रकाशित होनेवाली किताबों पर लागू न हो सके और इस तरह मैंने उनके यानी ‘राजकमल’ के साथ हुए अनुबंध को उसके रहमोकरम पर छोड़कर ‘सारांश’ के आगामी प्रकाशनों की बिक्री-व्यवस्था अपने हाथों में ली। इस नए अवतार में ‘सारांश’ को प्रोफेसर रामशरण शर्मा, मुल्कराज आनंद, फरनांदी पैसोवा, शिव के. कुमार, प्रोफेसर गोपीचंद नारंग, प्रोफेसर बी. आर. नंदा, रामशरण जोशी, मधु लिमये, इंतज़ार हुसैन, फ़हमीदा रियाज़, अख्तरुल ईमान, अहमद फ़राज़, मजरूह सुलतानपुरी, कतील शिफाई, शहरयार, किश्वर नाहीद, हरभजन सिंह, दिलीप कौर टिवाणा, सुरजीत पातर, विजयदान देथा आदि अनेकानेक देशी-विदेशी विद्वानों एवं साहित्य-स्रष्टाओं का सहयोग–समर्थऩमिलावउनकी कृतियाँ प्रकाशित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआऔर उसनेअन्य कई पुरस्कारों के अलावा दो ‘सरस्वती सम्मान’ एवं दो ‘स्वर्णकमल’ प्राप्त किए। लेकिन फिर वही व्यक्तिगत मजबूरियाँ, जिनके चलते अंततः मुझे 1994 के मध्य में शुरू हुए ‘सारांश’ की गतिविधियों पर 2006 में विराम लगाना पड़ा। लगभग बारह वर्षों तक सक्रिय रहने के बाद यह संस्था मौन हो गई। एक सपने की मौत!!!

 

Share198Tweet124
सुमित नैथानी

सुमित नैथानी

सुमित नैथानी पेशे से फ्रीलांसर पत्रकार हैं। वे विगत कई वर्षों से मीडिया जगत में सक्रिय हैं। विगत वर्षों में सुमित ने कई सारे मीडिया संस्थानों में विभिन्न पदों पर कार्य किया। सुमित को फिल्म जगत, खेल और साहित्य की खबरें लिखने में महारत हासिल हैं।

  • Trending
  • Comments
  • Latest
ICC AWARDS 2024: जसप्रित बुमराह ने जीता आईसीसी का ये खिताब, इन खिलाड़ियों को पीछे छोड़कर जीता ये अवॉर्ड

ICC AWARDS 2024: जसप्रित बुमराह ने जीता आईसीसी का ये खिताब, इन खिलाड़ियों को पीछे छोड़कर जीता ये अवॉर्ड

January 27, 2025
दिल्ली में साहित्यकारों का सम्मान

दिल्ली में साहित्यकारों का सम्मान

March 8, 2025
Ranji Trophy 2025: 4472 दिन बाद करेंगे विराट कोहली रणजी ट्रॉफी में वापसी

Ranji Trophy 2025: 4472 दिन बाद करेंगे विराट कोहली रणजी ट्रॉफी में वापसी

January 27, 2025
Mahakumbh 2025 Live Updates: अमित शाह के साथ सीएम योगी ने लगाई संगम में डुबकी, साधु-संतों से की मुलाकात

Mahakumbh 2025 Live Updates: अमित शाह के साथ सीएम योगी ने लगाई संगम में डुबकी, साधु-संतों से की मुलाकात

0
Champions Trophy 2025: क्या इस टूर्नामेंट से पहले पाकिस्तान कर पाएगा स्टेडियमों को तैयार, देखें रिपोर्ट

Champions Trophy 2025: क्या इस टूर्नामेंट से पहले पाकिस्तान कर पाएगा स्टेडियमों को तैयार, देखें रिपोर्ट

0
पुरानी रंजिश में चार लोगों की हत्या, हमलावरों की तलाश जारी

पुरानी रंजिश में चार लोगों की हत्या, हमलावरों की तलाश जारी

0
Ind vs Eng Test 2025: जसप्रीत बुमराह ने इंग्लैंड के खिलाफ छूटे हुए कैचों पर तोड़ी चुप्पी, कहा “बैठो और रोओ…”

Ind vs Eng Test 2025: जसप्रीत बुमराह ने इंग्लैंड के खिलाफ छूटे हुए कैचों पर तोड़ी चुप्पी, कहा “बैठो और रोओ…”

June 23, 2025
Ind vs Eng Test 2025: बेन स्टोक्स के पहले गेंदबाजी करने के फैसले पर उठे सवाल, इंग्लैंड के इस पूर्व क्रिकेटर ने कही ये बात

Ind vs Eng Test 2025: बेन स्टोक्स के पहले गेंदबाजी करने के फैसले पर उठे सवाल, इंग्लैंड के इस पूर्व क्रिकेटर ने कही ये बात

June 21, 2025
Bryan Danielson Return: ब्रायन डेनियलसन के रिर्टन पर आई ये नई अपडेट, जानिए  कब हो सकती है एईडब्ल्यू सुपरस्टार वापसी

Bryan Danielson Return: ब्रायन डेनियलसन के रिर्टन पर आई ये नई अपडेट, जानिए कब हो सकती है एईडब्ल्यू सुपरस्टार वापसी

June 20, 2025
Khas Rapat

Copyright © 2025 Khashrapat.com

Navigate Site

  • राज्य
  • राष्ट्रीय न्यूज़
  • अंतराष्ट्रीय
  • खेल
  • धर्म
  • मनोरंजन
  • बिजनेस
  • साहित्य
  • लाइफस्टाइल
  • About Us
  • Cookie Policy
  • Privacy Policy
  • Sitemap
  • Feed

Follow Us

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In
No Result
View All Result
  • Home
  • राष्ट्रीय न्यूज़
  • अंतराष्ट्रीय
  • राज्य
  • खेल
  • बिजनेस
  • लाइफस्टाइल
  • मनोरंजन
  • वेब स्टोरीज
  • धर्म

Copyright © 2025 Khashrapat.com