राधा रमण
पिछले माह पहलगाम के बायसरन में कश्मीर घूमने गए 26 पर्यटकों की धर्म पूछकर नृशंस हत्या से देशभर में गम और गुस्से के बीच केंद्र सरकार ने देशभर में जाति जनगणना कराने का ऐलान किया है। कैबिनेट की राजनीतिक मामलों की समिति की बैठक में यह फैसला किया गया। देश में आजादी के बाद पहली बार जाति जनगणना कराई जाएगी। कांग्रेस समेत विपक्ष के कई दल जाति जनगणना कराने की मांग पहले से करते रहे हैं। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी तो इसको लेकर पहले से अभियान चलाये हुए हैं। वह संसद के भीतर और संसद के बाहर बार-बार मुखरता से अपनी बात कहते रहे हैं। इससे पूर्व बिहार, कर्नाटक और तेलंगाना सरकार ने पहले ही जाति सर्वेक्षण करा लिया है। हालांकि उसमें पूछे जानेवाले सवाल करीब-करीब वही थे जो जाति जनगणना में पूछे जाते हैं। लेकिन संवैधानिक संकट से बचने के लिए उसका नाम जाति सर्वेक्षण दिया गया क्योंकि जाति जनगणना का अधिकार राज्यों के पास नहीं है। देश की संघीय ढाँचे के कारण यह अधिकार केंद्र के अधीन है।
सरकार के फैसले की जानकारी देते हुए केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अश्वनी वैष्णव ने बताया कि मोदी सरकार का संकल्प है कि आगामी जनगणना प्रक्रिया में पारदर्शी तरीके से जाति गणना को भी शामिल किया जाएगा। उन्होंने कहा कि जनगणना का अधिकार संवैधानिक रूप से केंद्र सरकार के पास है। लेकिन कुछ राज्यों ने जातीय सर्वे के नाम पर गैर पारदर्शी तरीके से जाति जनगणना कराई, जिससे समाज में संदेह पैदा हुआ था। उन्होंने कहा कि कांग्रेस और इंडी (विपक्ष इसे इंडिया कहता है) गठबंधन के नेता जाति जनगणना को सियासी हथकंडे के तौर पर इस्तेमाल करते रहे हैं। इसलिए जाति जनगणना जरूरी हो गई थी।
हालांकि जाति जनगणना कब से शुरू होगी, सरकार ने इसकी ठोस तारीख नहीं बताई है। इससे पहले 1931 में जाति जनगणना कराई गई थी। वैसे देश में जनगणना की शुरुआत 1881 में हुई थी। तब लोगों की गिनती के साथ-साथ जाति की भी गिनती की जाती थी। लेकिन आजादी के बाद 1951 में तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू समेत पक्ष-प्रतिपक्ष के नेताओं ने कहा कि इससे समाज में वैमनस्यता बढ़ेगी। इसलिए सिर्फ जनगणना कराई गई, जाति छिपा ली गई। तब से अटकलों के आधार पर सभी दलों के नेता जातियों की संख्या बताते रहे हैं। मुझे कहने दीजिए कि तब से अब तक देश की राजनीति पूरी तरह बदल गई है। अब तो जाति के आधार पर नेता उसके जागीरदार बने फिरते हैं। यही वजह है कि समाज के सर्वांगीण विकास के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने कमजोर तबके की मदद के लिए जिस आरक्षण को 5 वर्ष या जरूरत पड़ने पर और 5 वर्ष यानी कुल 10 वर्ष तक लागू करने की बात कही थी, आज आजादी के 75 वर्ष बाद भी उसे हटाने की हिम्मत किसी में नहीं है। आरक्षण अब वोट बैंक का जरिया बन गया है। यही नहीं, आरक्षण का आधार आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की मदद न होकर जिस जाति की जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी हो गया है। पक्ष-विपक्ष के कई पिछड़ी और दलित जातियों के नेता यह मांग अरसे से करते रहे हैं।
आजादी के बाद 2011 में तब की मनमोहन सिंह सरकार ने जाति के आधार पर तो नहीं लेकिन सामाजिक-आर्थिक आधार पर जनगणना कराई थी। उसकी रिपोर्ट 2013 में आ गई थी लेकिन अगले साल होनेवाले लोकसभा चुनाव के कारण नफा-नुकसान देखकर तब की सरकार ने उसकी रिपोर्ट जारी नहीं की। लोकसभा चुनाव के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बनी सरकार ने पूर्ववर्ती सरकार की जनगणना रिपोर्ट में खामियां बताकर उसे जारी नहीं किया। इस बीच 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने यह बयान देकर सनसनी फैला दी कि आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए न कि जातिगत। निष्पक्ष तरीके से देखा जाए तो भागवत के बयान में कोई गलती नहीं थी, लेकिन जाति के लंबरदार नेताओं को भागवत की यह बात नागावार गुजरी। खासकर लालू प्रसाद यादव और शरद यादव (अब स्वर्गीय) ने इसे तिल का ताड़ बना दिया। कहा गया कि भाजपा और आरएसएस आरक्षण की विरोधी हैं। उस समय नीतीश कुमार भी महागठबंधन के तहत ही चुनाव मैदान में थे। इस मामले को उन्होंने भी खूब हवा दी। नतीजा यह रहा कि प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रियों और भाजपा नेतृत्व की लाख सफाई के बावजूद बिहार में भाजपा का बोरिया-बिस्तर बंध गया। उसे करारी हार मिली थी।
इसीलिए इस बार बिहार विधानसभा चुनाव के ठीक पहले जाति आरक्षण का दांव खेलकर केंद्र सरकार ने कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी और विपक्ष के तमाम दलों के नेता जिनकी राजनीति जातीय गोलबंदी पर टिकी थी, की बोलती बंद कर दी है। बिहार में इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं। अगले साल पश्चिम बंगाल और असम में, 2027 में उत्तर प्रदेश में, उसके अगले साल मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में, फिर 2029 में लोकसभा का चुनाव प्रस्तावित है। इसके अलावा देश में ‘एक देश, एक चुनाव’ की कवायद भी चल रही है। पता नहीं कब इसकी नौबत आ जाए। फिर, तेलुगु देशम पार्टी और जनता दल की बैशाखी पर टिकी सरकार कब मध्यावधि चुनाव पर आमादा हो जाए ! फिलहाल कुछ भी कहना मुश्किल है।
उधर, 22 अप्रैल को पहलगाम के बायसरन में पाकिस्तान परस्त आतंकियों द्वारा 26 पर्यटकों की नृशंस हत्या से सरकार की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर सवाल उठने लगे थे। पाकिस्तान के खिलाफ सिर्फ जलयुद्ध होगा या जंग होगी, फिलहाल कहना मुश्किल है। घटनाक्रम रोज-रोज बदल रहे हैं। विश्व समुदाय की भी इस पर नजर है। महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे भी सिर उठा रहे थे। ऐसे में सरकार ने जाति जनगणना का बड़ा शिगूफा छेड़कर तमाम विपक्षी दलों को मुद्दाविहीन और निरुत्तर तो कर ही दिया है।