राधा रमण
भारतीय जनता पार्टी (BJP) की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (National Demokretik Alliance) से मुकाबले के लिए विपक्ष के 39 दलों ने दिसंबर 2023 में आयोजित मुंबई की अपनी बैठक में इंडिया (Indian National Developmental Inclusive Alliance अर्थात भारतीय राष्ट्रीय विकासशील समावेशी गठबंधन) नाम से एक अलग मोर्चा बनाया था। तब तय किया गया था कि गठबंधन के दल मिलकर एनडीए और केंद्र सरकार को घेरेंगे। साथ ही लोकसभा के अलावा आगे का हर चुनाव आपसी तालमेल के साथ लड़ेंगे। तब यह भी तय किया गया था कि जिस राज्य में जिस पार्टी का दबदबा ज्यादा रहेगा, वही पार्टी उस राज्य में गठबंधन का नेतृत्व करेगी। इस गठबंधन की परिकल्पना बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने की थी। उन्होंने पटना में इसके लिए विपक्षी दलों को इकट्ठा भी किया था। उस समय नीतीश कुमार बिहार में महागठबंधन की सरकार चला रहे थे। राजनीति के धुरंधर राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव अपने छोटे बेटे तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने का सपना पाले बैठे थे। उन्हें लगा कि इस तरह से नीतीश कुमार को केंद्र की राजनीति में भेजकर वह अपने मकसद में कामयाब हो जाएंगे। इसलिए उन्होंने भी इस पूरी कवायद में बढ़- चढ़कर योगदान दिया।
भाजपा के व्यूह में फंसकर महाराष्ट्र में अपनी सरकार गंवा चुके शिवसेना (उद्धव) के नेता उद्धव ठाकरे और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार) के नेता शरद पवार पहले से ही पार्टी टूटने के कारण भाजपा से खार खाये बैठे थे। विधानसभा चुनाव में दूसरी बार करारी हार से असुरक्षित महसूस कर रहे समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव को भी यह योजना अच्छी लगी, सो वह भी साथ हो लिये। एनडीए के खिलाफ अकेले मोर्चा संभाले ममता बनर्जी को भी कोई दिक्कत नहीं थी। शरद पवार के समझाने पर वह भी साथ चलने को राजी हो गईं। उधर, कथित शराब घोटाले में अपने सहयोगियों मनीष सिसोदिया और संजय सिंह के जेल जाने और अपनी गिरफ्तारी की आशंका से घिरे आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल भी विपक्ष का साथ मिल जाने की गरज से गठबंधन में शामिल हो गए। तमिलनाडु में राज्यपाल के खिलाफ मोर्चा खोले मुख्यमंत्री एम के स्टालिन भी सहमत हो गए। बाद में विपक्षी नेताओं की पहल पर देश के छोटे-बड़े 39 दलों ने गठबंधन के साये में आना स्वीकार कर लिया।
उधर, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद को विपक्षी गठबंधन का संयोजक बनने की मंशा पाले हुए थे। उन्हें लग रहा था कि इस तरह वह जयप्रकाश नारायण की पंक्ति में शामिल हो जाएंगे और सियासत में पूजे जाएंगे। लेकिन कांग्रेस देश की बड़ी पार्टी होने के कारण गठबंधन का नेतृत्व खुद करना चाहती थी। लालू प्रसाद भी नीतीश को हर हाल में मिटाने पर तुले हुए थे, क्योंकि इससे पहले नीतीश कई बार उनकी पीठ में छूरा भोंक चुके थे। ममता बनर्जी की अपनी अलग महत्वाकांक्षा थी। शरद पवार मानकर चल रहे थे कि बुजुर्ग और अनुभवी होने के कारण गठबंधन में बिना कहे ही उन्हें उचित स्थान मिल जाएगा। इसलिए वह चुप रहे। पटना की बैठक में लालू यादव और ममता बनर्जी की मिलीभगत के कारण संयोजक पद की कोई बात नहीं हुई। इससे नीतीश कुमार मन कचोटकर रह गए। मुंबई की बैठक में ममता बनर्जी और लालू यादव ने मिलकर खेला कर दिया। ममता की पहल पर गठबंधन का नाम इंडिया (Indian National Developmental Inclusive Alliance अर्थात भारतीय राष्ट्रीय विकासशील समावेशी गठबंधन) रख दिया गया और इसका संयोजक कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को बना दिया गया। इससे नीतीश कुमार बिदक गए और गठबंधन में दाल नहीं गलती देखकर वह धीरे से एनडीए में शामिल हो गए।
उस समय गठबंधन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अलावा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा), आम आदमी पार्टी, अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, शिवसेना (यूबीटी), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार), झारखंड मुक्ति मोर्चा, राष्ट्रीय जनता दल, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ( मार्क्सवादी-लेलिनवादी लिबरेशन), जम्मू और कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस, विदुथलाई चिरुथिगल काची (वीसीके), इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक, केरल कांग्रेस, मरूमलारची द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी, भारत की किसान और श्रमिक पार्टी,, जम्मू और कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी), मनिथानेया मक्कल काची, कोंगुनाडु मक्कल देसिया काची, रायजोर दल, असम जातीय परिषद्, आंचलिक गण मोर्चा, ऑल पार्टी हिल लीडर्स कॉन्फ्रेंस, वंचित बहुजन अघाड़ी, गोवा फ़ॉरवर्ड पार्टी, भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा, हाम्रो पार्टी, मक्कल निधि मय्यम, जातीय दल असम, महान दल, विकासशील इंसान पार्टी, समाजवादी गणराज्य पार्टी, और पूर्वांचल लोक परिषद् शामिल थी।
लेकिन यह क्या, लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने कांग्रेस और वाम दलों को एक भी सीट देने से इनकार कर दिया। उधर, पंजाब में आम आदमी पार्टी ने भी कांग्रेस की सीटिंग सीटों पर भी यह कहकर उम्मीदवार उतार दिये कि हम दोस्ताना लड़ाई लड़ेंगे। बिहार में पूर्णिया की सीट कांग्रेस की लाख कोशिश के बावजूद राष्ट्रीय जनता दल ने देने से मना कर दिया। नतीजतन, अपनी पार्टी जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक) का कांग्रेस में विलय करने के बावजूद कांग्रेस राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव को एक अदद सीट नहीं दिला सकी। पप्पू को निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरना पड़ा। भले ही उन्होंने जीत हासिल कर ली। यही नहीं, कांग्रेस के ज्यादातर उम्मीदवार लालू यादव की मर्जी से उतरे। नतीजतन बिहार में इंडिया गठबंधन को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। जबकि एनडीए के साथ जाने के कारण नीतीश की जनता दल (यूनाईटेड) को अकेले 12 सीटों पर सफलता मिली और वह मोदी-3 सरकार के खेवनहार बन गए। मुझे कहने दीजिए कि अगर बिहार और पंजाब में इंडिया गठबंधन होशियारी से मिलकर चुनाव लड़ा होता तो केंद्र में एनडीए की वापसी नहीं हो पाती।
दरअसल, इंडिया गठबंधन तो बन गया लेकिन इसके नेता ‘मुंह में राम, बगल में छूरी’ की नीति पर चलते दिखाई देते हैं। देश ने देखा कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव, उत्तर प्रदेश के मध्यावधि चुनाव अथवा हाल फिलहाल के दिल्ली विधानसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन के दलों में कितनी कटुता दिखी। गठबंधन के दल एक-दूसरे के खिलाफ किस-किस तरह की भाषा का उपयोग करते दिखे। सच्चाई तो यह है कि क्षेत्रीय दलों की बुनियाद ही कांग्रेस के वोट बैंक पर टिकी है। जिस दिन कांग्रेस मजबूत हो जाएगी और अपनी रौ में आ जाएगी उस दिन क्षेत्रीय दल हवा हो जाएंगे। चाहे लालू यादव की राजद हो या अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा हो अथवा ममता की तृणमूल कांग्रेस, शरद पवार की रांकपा हो अथवा मायावती की बहुजन समाज पार्टी, आम आदमी पार्टी हो अथवा अन्य कोई क्षेत्रीय दल, सबकी जमीन कांग्रेस के वोट बैंक पर टिकी है। दिल्ली में सबने देखा कि कि कैसे कांग्रेस का वोट बैंक बढ़ा तो आम आदमी पार्टी सत्ता से बेदखल हो गई।
दिल्ली में कांग्रेस के 14 उम्मीदवारों को मिले वोट सीधे तौर पर आम आदमी पार्टी की हार में सहायक रहे। उधर, अतीत में आम आदमी पार्टी के कारण कांग्रेस को हरियाणा में हार का सामना करना पड़ा था। यही नहीं, असम, मध्यप्रदेश, गोवा, राजस्थान, छतीसगढ़ आदि कई राज्यों में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को चोट पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इस बार मौका मिला तो कांग्रेस ने धोबियापाट दांव मार दिया। उधर, कांग्रेस की दिक्कत यह है कि पार्टी के कुछ पुराने और बिना रीढ़ के नेता भी नहीं चाहते कि कांग्रेस में नये नेतृत्व की पौध पनपे, क्योंकि इससे उनका महत्त्व कम होने का खतरा है। और तो और, खुद सोनिया गांधी भी नहीं चाहतीं कि कांग्रेस में कोई राहुल गांधी का विकल्प बनकर उभरे। यहां तक कि प्रियंका भी नहीं। तभी तो कांग्रेस के पूर्व नेता रहे आचार्य प्रमोद कृष्णम कहते हैं कि कांग्रेस और राहुल गांधी दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस कभी आगे नहीं बढ़ सकती है। जब तक राहुल कांग्रेस का नेतृत्व करते रहेंगे, मोदी सरकार को कोई खतरा नहीं है। मुझे याद है, एक बार कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री गुफराने आजम ने सोनिया गांधी को पत्र भेजकर कहा था कि ‘लड़का (राहुल गांधी) लायक नहीं है। उसे चाहो तो रोजगार करा दो, नौकरी करा दो लेकिन राजनीति में मत आने देना। नहीं तो वह पार्टी का बंटाधार कर देगा।‘ बाद में कांग्रेस ने गुफराने आजम को पार्टी से निकाल दिया था। अब गुफराने आजम साहब नहीं रहे, लेकिन उनकी कही बात सच होती जा रही है।
लब्बोलुआब यह कि निहित स्वार्थों के कारण इंडिया गठबंधन शुरू से ही दरकते रहा। आनेवाले दिनों में बिखराव और बढ़ने की आशंका है। कांग्रेस हमेशा से अंग्रेजों की तरह फूट डालो, राज करो की नीति पर चलती रही है और सत्ता भोग करती रही है। वही अब एनडीए के नेता कर रहे हैं।